मुंशी प्रेमचंद जीवनी Munshi Premchand biography in hindi – “मैं एक मजदूर हूं जिस दिन मैं कुछ लिख ना लूं,उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं है।”
यह बातें हिंदी और उर्दू के प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद ने कही थी, जिन्हें बीसवीं सदी का सबसे प्रसिद्ध लेखक कहा जाता है। मुंशी प्रेमचंद जी को हिंदी साहित्य मे अपने योगदान के लिए “उपन्यास सम्राट” के नाम से जाना जाता है। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय जी ने उन्हें “उपन्यास सम्राट” का नाम दिया था।
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के पास स्थित एक गांव “लमही” नामक गांव में हुआ था । यह एक कायस्थ परिवार से थे। इन की मां का नाम “आनंदी देवी” और पिता का नाम “अजायब राम” था । इनके पिता लमही डाकघर में “डाक मुंशी” थे। इन्हें दुनिया “मुंशी प्रेमचंद” के नाम से जानती है। मगर यह उनका असली नाम नहीं था उनका असली नाम “धनपत राय” था। मुंशी प्रेमचंद ने लिखना शुरू करते समय सबसे पहले अपना नाम “नवाब” रखा, मगर कुछ समय के बाद उन्हें अपना नाम बदलकर “प्रेमचंद” रखना पड़ा।
मुंशी प्रेमचंद जी ने 7 साल की उम्र में उर्दू और पर्शियन भाषा की शिक्षा ग्रहण की। जब वह 8 साल के थे तभी उनकी मां का देहांत हो गया। यहीं से मुंशी प्रेमचंद में लिखने पढ़ने की रुचि बढ़ने लगी क्योंकि उनकी मां के मरने के कुछ समय बाद ही उनकी दादी का भी देहांत हो गया। उनकी एक बड़ी बहन थी और उनकी भी शादी हो चुकी थी और उनके पिता काफी व्यस्त रहते थे। कुछ समय बाद उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली। मगर प्रेमचंद जी को अपनी सौतेली मां से इतना प्रेम कभी नहीं मिला। ऐसे माहौल में उन्हें एकांत में रहकर किताबें पढ़ने की आदत पड़ गई। उन्होंने पर्शियन, हिंदी, इंग्लिश और उर्दू की कई किताबें पढी।
मुंशी प्रेमचंद का पहला विवाह 15 वर्ष की उम्र में हो गया था उनका विवाह असफल रहा। 1906 में इन्होंने विधवा विवाह का समर्थन करते हुए, दूसरा विवाह बाल विधवा “शिवरानी देवी” से किया , जिससे उनकी तीन संताने श्री पतराय ,अमृतराय और कमला देवी हुई ।
मुंशी प्रेमचंद जब हाई स्कूल में थे, उस समय वह बहुत बीमार हो गए थे जिसके कारण वह सेकंड डिवीजन मे पास हुए। पैसों की कमी के कारण उन्हें अपने पढ़ाई रोकनी पड़ी। उसके बाद उन्होंने बनारस के एक वकील के बेटे को पढ़ाने की नौकरी कर ली, जिसके लिए उन्हें ₹5 मिलते थे जिसमें से वह ₹2 में अपना घर खर्च चलाकर ₹3 घर भेज देते थे। इसके बाद एक मिशनरी स्कूल के हेडमास्टर ने उन्हें अध्यापक की नौकरी देने का प्रस्ताव रखा, जिसे प्रेमचंद जी ने स्वीकार कर लिया। उस नौकरी से उन्हें महीने के ₹18 मिलते थे। बाद में उन्हें एक सरकारी स्कूल में असिस्टेंट की नौकरी मिल गई। इसी समय उन्होंने अपना पहला लघु उपन्यास “Asrar e Ma’abid” लिखा, जिसे हिंदी में “देवस्थान रहस्य” कहते हैं। यह लघु उपन्यास बनारस के उर्दू साप्ताहिक अखबार “Awaze-e-khalk” में प्रकाशित हुआ।
1905 से मुंशी प्रेमचंद भारत की राजनीति से काफी प्रभावित होने लगे और इसका असर उनकी किताबों में भी दिखने लगा। वह अपनी कहानियों से समाज को आजादी के लिए जागरूक करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने अपने एक लेख में “बाल गंगाधर तिलक” के प्रयासों की सराहना भी की। उन्होंने एक कहानी “दुनिया का सबसे अनमोल रतन” लिखी जिसके अनुसार दुनिया का सबसे अनमोल रतन “हमारे खून की आखिरी बूंद” है, जिसे हमें देश की आजादी के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। वह लोगों को इस कहानी के माध्यम से यह बताना चाह रहे थे कि आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण कोई और लक्ष्य नहीं है और इसके लिए हम सब को एकजुट होकर काम करना चाहिए। इसके अलावा उन्होंने लघु कहानियों की एक किताब “Soz-e-Watan” लिखी जो अंग्रेजों की नजर में आ गई। पुलिस ने प्रेमचंद जी के यहां छापा मारा और “Soz-e-Watan” की लगभग 500 प्रतियां जला दी गई। इसके बाद उन्हें अपना नाम “नवाब राय” से बदलकर “प्रेमचंद” रखना पड़ा।
1919 में प्रेमचंद का लिखा हुआ उपन्यास “सेवासदन” लोगों को बहुत पसंद आया और प्रेमचंद भारत में प्रसिद्ध लेखक के रूप में जाने जाने लगे। यह किताब पहले कोलकाता में हिंदी भाषा में और लाहौर में उर्दू भाषा में प्रकाशित हुई। जिसके लिए उन्हें 4:30 सौ और ढाई सौ रुपए मिले। 1919 में 39 साल की उम्र में उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से “बीए” की डिग्री ली।
1921 में उन्होंने एक मीटिंग में हिस्सा लिया, जहां गांधी जी ने “असहयोग आंदोलन” के लिए, लोगों से सरकारी नौकरियां छोड़ने के लिए कहा। प्रेमचंद जी गांधीजी से बहुत प्रभावित हुए, उनकी खुद की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। इसके बावजूद पांच दिनों तक सोच विचार करने के बाद, अपनी पत्नी की भी रजामंदी लेकर, उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और बनारस चले गए। इसके बाद उन्होंने कई सारे उपन्यास और कहानियां लिखी।
1934 में वह हिंदी फिल्मों के लिए कहानियां लिखने की इच्छा से मुंबई पहुंचे और “अजंता सीनिटोन” प्रोडक्शन हाउस के लिए एक साल तक स्क्रिप्ट लिखने का ऑफर भी उन्होंने स्वीकार कर लिया। इसके लिए उन्हें ₹8000 एक साल के मिलने थे। उन्हें लगा कि इससे उनकी सारी आर्थिक परेशानियां दूर हो जाएंगी। उन्होंने एक फिल्म “मजदूर” की स्क्रिप्ट लिखी। इस फिल्म में मजदूरों के ऊपर होने वाले अत्याचारों को बहुत करीब से दिखाया गया था। मगर इस फिल्म को बड़े-बड़े उद्योगपतियों ने मुंबई में रिलीज होने ही नहीं दिया। लाहौर और दिल्ली में फिल्म रिलीज हुई, मगर इसके असर से जब मजदूरों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया तो वहां भी फिल्मों पर प्रतिबंध लग गया। प्रेम चंद जी को अब मुंबई का कमर्शियल माहौल रास नहीं आ रहा था और वहां जाने के एक साल के अंदर ही वह मुंबई छोड़कर इलाहाबाद चले गए, जहां उनके बच्चे पढ़ाई कर रहे थे। इससे उन्हें कोई ज्यादा आर्थिक लाभ नहीं हुआ और नौकरी छोड़ने के बाद वह बाकी की उम्र आर्थिक परेशानियों से ही जूझते रहे।
मुंशी प्रेमचंद जी का 8 अक्टूबर 1936 को लंबी बीमारी के बाद देहांत हो गया। वह आमतौर पर सामाजिक परेशानियों और वास्तविक परिस्थितियों पर ही कहानियां लिखते थे। इनकी कहानियों से इंसान अपने आप को जुड़ा हुआ महसूस करता है।