मीराबाई जीवनी Mirabai biography in hindi – “मीराबाई” इस नाम को सुनकर अगर कुछ याद आता है तो वह है “श्री कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति और प्रेम” वैसे तो पूरी दुनिया श्री कृष्ण के साथ “राधा जी” का नाम लेती हैं और यहां तक कि राधा जी का नाम कृष्ण से पहले लिया जाता है लेकिन श्रीकृष्ण के प्रति “मीरा के प्रेम” को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।
मीरा का जन्म राजस्थान में मेड़ता के राजघराने में हुआ था। उनके पिता का नाम “रतन सिंह राठौड़” था। मीराबाई मे श्री कृष्ण के प्रति भक्ति कैसे आई, इसका संबंध उनके बचपन में घटी एक घटना से हैं। एक दिन उनके पड़ोस में किसी अमीर आदमी के यहां बारात आई, सभी औरतें छत पर खड़ी होकर बरात को देख रही थी। मीरा भी यह सब देख बहुत खुश हो रही थी। बारात में सजे धजे दूल्हे को देख मीरा ने अपनी मां से सवाल किया कि यह कौन है। जिस पर उनकी मां ने बताया कि यह दूल्हा है। तो इस पर नादान मीरा पूछ बैठी की मेरा दूल्हा कहां है ? जिस पर उनकी मां ने कृष्ण की मूर्ति की ओर इशारा करके कह दिया कि यही तुम्हारा दूल्हा है। बस फिर क्या था मीरा ने इस बात को इतनी गंभीरता से ले लिया कि आज तक कृष्ण के प्रति उनके प्रेम को याद किया जाता है और हमेशा किया जाता रहेगा।
मीरा सच में कृष्ण को अपना दूल्हा ही समझने लगी थी कम उम्र में ही मीरा की मां का निधन हो गया था। जिसके बाद “दादा राव” ने उन्हें पाला पोसा । कहा जाता है कि मीरा के दादा भगवान विष्णु के उपासक थे। इन सब के चलते ही कम उम्र में उनको भक्ति का माहौल मिल गया था। मीराबाई के जब विवाह की बात हुई थी तो उन्होंने शादी से साफ मना कर दिया क्योंकि उनकी नजर में तो कृष्ण, पहले से ही उनके दूल्हा बन चुके हैं। ऐसे में किसी दूसरे से शादी करने का मतलब ही नहीं बनता। लेकिन परिवार वालों को उनकी बात समझ नहीं आती थी और मीरा को परिवार वालों की। लेकिन रिती रिवाज और दुनियादारी को निभाने के दबाव के चलते उन्हें शादी करनी पड़ी।
मीरा की शादी उदयपुर के “महाराणा भोजराज” से हुई जो महाराणा सांगा के पुत्र थे। वह किसी मामूली परिवार से नहीं थी। मीरा के पास सब कुछ था जिसे वह कृष्ण के खातिर दांव पर लगाने वाली थी। विवाह में फेरे के समय भी मीरा ने कृष्ण की मूर्ति को अपने हाथ नहीं पकड़े रखा था। शादी होने के बाद वह अपने ससुराल आ चुकी थी और अगली सुबह घर की एक खास पूजा-पाठ कार्यक्रम में उन्हें सुबह जल्दी उठकर भाग लेना था। जो पूजा पति के खातिर ही की जाती थी लेकिन मेरा ने उस में भाग लेने से मना कर दिया। यही नहीं मीरा ने तो वहां घर की कुलदेवी की पूजा करने से भी मना कर दिया था। मीरा के ससुराल वाले तुलजा भवानी यानी दुर्गा को अपनी कुलदेवी मानकर उनकी पूजा करते थे लेकिन मीरा की इस हरकत से हर कोई हैरान था। सिर्फ उनके पति ने ही काफी हद तक उनका साथ दिया था। मीरा घर का काम काज करने के बाद कृष्ण की भक्ति में ही अपना अधिकतर समय दिया करती थी, जिससे धीरे-धीरे वहां के लोगों को समस्या होने लगी थी। उनके पति महाराणा भोजराज ने आखरी समय तक उनका साथ दिया था। भोजराज दिल्ली सल्तनत के शासकों से युद्ध करते हुए घायल हो गए थे और इस कारण उनकी मृत्यु हो गई थी। मीरा को पति के साथ सती करने की कोशिश की गई थी लेकिन वह नहीं मानी। इसके बाद तो कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति और भी गहरी होती चली गई । मीरा को दुनियादारी समाज किसी का भी डर नहीं रह गया था। इसके बाद तो वह घर से बाहर निकल मंदिरों में जाती, लोगों के बीच रहकर कृष्ण प्रेम में नाचती गाती, साधु संतों की संगति में रहती और शहर में चलने वाले सत्संग में भी हिस्सा लेती। धीरे-धीरे अब हर कोई उन्हें जाने लगा था। उनके पति के चले जाने के बाद मीरा का देवर “विक्रमादित्य” राजा बना, लेकिन उसे मीरा की हरकत बिल्कुल पसंद नहीं आई और ना ही घर में किसी दूसरे को मीरा का ऐसा करना अच्छा लगा। सबको समाज के बीच अपनी इज्जत, मान- सम्मान की चिंता होती थी। यहां से मीरा के खिलाफ परेशानियों का दौर शुरू हुआ। मीरा को श्रीकृष्ण से दूर करने की कोशिश की जाने लगी। लेकिन मीरा अपने इरादे से नहीं डगमगाए।
विक्रमादित्य ने मीरा को मारने के लिए कई साजिश रची। पति के मरने के बाद मीरा पर दुराचार का आरोप लगाया गया, जिस आरोप के लिए मृत्युदंड दिया जाता था। मीरा को सबके सामने दरबार में जहर पीने को दिया गया। मीरा ने श्रीकृष्ण को याद करते हुए उस जहर को भी पी लिया और वहां से चल दी। फिर हर कोई उनके मरने का इंतजार करने लगा लेकिन जहर का कोई असर उन पर नहीं हुआ। ऐसे ही कई और बार उन्हें जहर देकर मारने की कोशिश की गई थी। मीरा को भगवान का प्रसाद बताकर यह जहर दिया जाता था। मीरा किसी भी हाल में, भगवान के प्रसाद को मना नहीं करती थी। लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं हुआ। एक बार तो फूलों की टोकरी में जहरीला सांप रखकर, मीरा के पास भेजा गया लेकिन जब मीरा ने उसे देखा तो उन्हें टोकरी में “फूलों की माला” मिली और उसके बीच “कृष्ण की मूर्ति” दिखी।
ऐसा कहा जाता है कि जब हद हो गई मीरा ने “तुलसीदास जी” को पत्र लिखा और अपनी इस समस्या को लेकर समाधान मांगा। सब तुलसीदास जी ने उन्हें ऐसे घर और लोगों को छोड़ देने की सलाह दी, जो लोग ईश्वर की भक्ति में मददगार नहीं होते। इसके बाद मीरा “श्री धाम वृंदावन” चली गई।
वैसे कहीं-कहीं ऐसा उल्लेख आता है कि इसके बाद “राव वीरमदेव” ने मीरा का मेड़ता बुला लिया था, लेकिन जब जोधपुर के शासक “राव मालदेव” ने मेड़ता पर कब्जा कर लिया, तब वीरमदेव वहां से भागकर अजमेर चले गए और वहां शरण ले ली। इसके बाद मीराबाई “श्री धाम वृंदावन” चली गई। जहां वह “जीव गोस्वामी” के दर्शन करना चाहती थी लेकिन उनके एक सेवक ने बाहर आकर बताया कि वह किसी स्त्री से नहीं मिलते। इस तरह जीव गोस्वामी ने उनसे मिलने से मना कर दिया। उनकी बात सुनकर फिर मीराबाई ने कहा कि “मैंने तो सुना था कि वृंदावन में केवल एक ही पुरुष है। मीरा का इशारा “श्री कृष्ण” की और था। वह आगे बोली वृंदावन में हर कोई औरत है और अगर यहां कोई पुरुष है तो केवल “गिरधर गोपाल” है।” उनकी इस बात को सुन जीव गोस्वामी हैरान और थोड़ा शर्मिंदा हुए। वह तुरंत बाहर आकर उनसे मिले और उन्हें झुककर प्रणाम भी किया। इस घटना के बाद मीराबाई वृंदावन से द्वारका धाम चली गई क्योंकि उन्होंने माना कि शादी के बाद एक स्त्री का घर उसका ससुराल ही होता है और वह कृष्ण को अपने पति रूप में मान चुकी थी। जिसके चलते वह कृष्ण की “द्वारका” नगरी चली गई।
मीराबाई के अंतिम समय मे मीरा भक्तों की भीड़ के बीच ही, श्री कृष्ण की भक्ति करते करते द्वारकाधीश की मूर्ति में ही समा गई थी। भगवान कृष्ण ने उन के प्रेम को स्वीकार करते हुए, उन्हें अपने परम धाम बुला लिया। सिर्फ उनकी साड़ी का एक छोर ही मूर्ति के पास मिला था और यह बात किसी को भी हैरान कर सकती है।
वैसे एक मान्यता के अनुसार मीरा पूर्व जन्म में वृंदावन में एक गोपी थी जिनका नाम “ललिता” था। वह राधा जी की 8 प्रमुख सहेलियों में से एक थी। उस समय उनका विवाह किसी और से कर दिया गया था, जिसके चलते ललिता ने, कृष्ण के विरह में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए थे। उसके बाद वही “ललिता” “मीरा” बनकर आई और कृष्ण प्रेम मे समा गई।
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