विक्रम बत्रा जीवनी Vikram Batra biography in hindi – 1999 के कारगिल युद्ध में भारतीय सेना के वीर जवानों की जाबाजी और पराक्रम का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यूं तो युद्ध में कई वीर जवानों ने मां भारती की आन, बान और शान को बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी, लेकिन आज भी कारगिल नायकों में सबसे पहले जिसका नाम लिया जाता है वह है “शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा”। विक्रम बत्रा को उनके साहस और बहादुरी के लिए “शेरशाह” के नाम से संबोधित किया जाता है।
“यह दिल मांगे मोर” यह दुनिया भर में प्रसिद्ध पेप्सी नाम की एक कोल्ड ड्रिंक का एक एडवरटाइजिंग स्लोगन है लेकिन अगर किसी ने सही मायनों में इस लाइन को पहचान दी है तो वह है कारगिल युद्ध के हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा। विक्रम बत्रा ने 1999 के “कारगिल युद्ध” में अपनी अभूतपूर्व वीरता का परिचय देते हुए पाकिस्तानी आर्मी के पसीने छुड़ा दिए थे। कैप्टन विक्रम बत्रा के दुश्मनों में इनका इतना खौफ था कि इन के दुश्मन इनको “शेरशाह” के नाम से बुलाते थे।
कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर 1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर जिले के एक “घुघर” नाम के एक छोटे से गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम “गिरधारी लाल बत्रा” और उनकी माता का नाम “कमल कांता बत्रा” है। कैप्टन विक्रम बत्रा का एक जुड़वा भाई है जिसका नाम विशाल बत्रा है। उनके माता-पिता ने इन दोनों भाइय का नाम “लव और कुश” रखा था। विक्रम अपने जुड़वा भाई अपनी जुड़वा भाई विचार से 14 मिनट पहले पैदा हुए थे।
विक्रम बत्रा ने अपने शुरुआती शिक्षा “डीएवी स्कूल” और उसके बाद पालमपुर के “सेंट्रल स्कूल” से प्राप्त की। आर्मी कैंटोनमेंट में स्कूल होने की वजह से आर्मी के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम बत्रा में स्कूल के समय ही देश प्रेम जाग उठा था। कैप्टन बत्रा शुरुआत से ही बहुत ही ज्यादा चुस्त थे और उनकी हमेशा यही कोशिश रहती थी कि वह हर चीज में आगे रहे, फिर चाहे वह पढ़ाई की बात हो या फिर सपोर्ट की और इसी वजह से वे एक बेहतरीन ऑलराउंडर थे। उन का स्कूल एक आर्मी कैंटोनमेंट में था तो इस कारण से वे स्कूल आते जाते समय वहां चलने वाली आर्मी की गतिविधियों को देखते रहते थे। सेना की कदमताल की आवाज को सुनकर रुक जाते थे और सुना करते थे। उसके बाद उन्होंने चंडीगढ़ में “डीएवी कॉलेज” से साइंस में अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की और इस दौरान वह “एनसीसी”(NCC) के सबसे बेहतरीन कैडेट चुने गए और उन्हें गणतंत्र दिवस की परेड का हिस्सा भी बनाया गया था।
विक्रम बत्रा जब ग्रेजुएशन कर रहे थे तो इसी दौरान उनके द्वारा मर्चेंट नेवी के लिए दी गई परीक्षा का परिणाम आया और उन्होंने यह परीक्षा पास कर ली थी और कुछ ही दिनों में उनका नियुक्ति पत्र भी आने वाला था और वह “पोलैंड” जाने के लिए भी सारी तैयारियां कर चुके थे, लेकिन फिर अचानक ना जाने उन्हें क्या हुआ वह अपनी मां की गोद में सिर रखकर बोले कि मां “मुझे मर्चेंट नेवी में नहीं जाना है मैं इंडियन आर्मी जॉइन करना चाहता हूं।” उनका यह फैसला वाकई में हैरान कर देने वाला था क्योंकि उन्होंने कई लाख रुपए की मर्चेंट नेवी जैसी नौकरी को ठुकरा कर इंडियन आर्मी में जाने का फैसला लिया था। वह पूरी तरीके से मन बना चुके थे कि वह इंडियन आर्मी के लिए खुद को पूरी तरीके से झोंक देंगे और इस फैसले के साथ ही उन्होंने पूरे जोर-शोर से “सीडीएस” की तैयारी शुरू कर दी।
1995 के आसपास जब विक्रम बत्रा उच्च शिक्षा के लिए “पंजाब यूनिवर्सिटी” गए तो उनकी मुलाकात वहां डिंपल से हुई जो उनकी अंग्रेजी की सहपाठी थी। धीरे-धीरे इन दोनों की दोस्ती प्यार में बदल गई और बात शादी तक पहुंच गई, लेकिन फिर अपने रिश्ते के एक साल बाद यानी 1996 में विक्रम बत्रा को आर्मी में सिलेक्शन के लिए “इंडियन मिलिट्री एकेडमी” देहरादून मे बुलाया गया और वह ट्रेनिंग के लिए इंडियन मिलिट्री एकेडमी चले गए। 6 दिसंबर 1997 को ट्रेनिंग पूरी होने के बाद उनको जम्मू के “सोपोर” नामक स्थान पर आर्मी की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्त किया गया।
1997 में कैप्टन विक्रम बत्रा को 13 वे जम्मू-कश्मीर राइफल में “लेफ्टिनेंट” के पद पर नियुक्त किया गया तो तभी से इस वीर बहादुर योद्धा की वीरता और निर्भयता के एक नए अध्याय की शुरुआत हो चुकी थी। कैप्टन बत्रा को 18 महीने की नौकरी के बाद 1999 में कारगिल युद्ध में जाना पड़ा था और इस दौरान वह बहुत ही बहादुरी से लड़े और सबसे पहले उन्होंने “हमको राकी” नाम पर भारत का झंडा फहराया था और एक के बाद एक मिली सफलताओं के बाद ही उन्हे लेफ्टिनेंट से कैप्टन बनाया गया।
उसके बाद आगे बढ़ते हुए उन्हें श्रीनगर “लेह मार्ग” के ठीक ऊपर . 5140 को पाक सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। हालांकि यह चैनल आसान बिल्कुल भी नहीं था लेकिन कैप्टन बत्रा उन इंसानों में से थे, जो कठिन से भी कठिन चुनौती को स्वीकार करने की हिम्मत रखते थे और उसी हिम्मत के कारण कैप्टन बत्रा अपने साथियों के साथ इस चोटी पर कब्जा करने में कामयाब रहे। जब प्वाइंट 5140 पर जीत हासिल करने के बाद कैप्टन बत्रा से उनकी प्रतिक्रिया ली गई तो उन्होंने जवाब दिया “यह दिल मांगे मोर” और बस यही से इन लाइनों को एक अलग पहचान मिल गई।
“यह दिल मांगे मोर” करना, देखते ही देखते पूरे कारगिल में दुश्मनों के लिए आफत बन गया और हर तरफ बस यही नारा सुनाई देता था “यह दिल मांगे मोर” “यह दिल मांगे मोर”। जब युद्ध चल रहा था तब कैप्टन बत्रा अपने दुश्मनों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बन गए थे और ऐसे में पाकिस्तान की ओर से उन्हें एक कोड नेम दिया गया था और यह कोड नेम कुछ और नहीं बल्कि उनका निकनेम “शेरशाह” था।
जून 1999 को महत्वपूर्ण “प्वाइंट 5140” पर जीत हासिल करने के बाद “पॉइंट 4875” को कब्जे में लेने का अभियान शुरू किया गया और इसकी बागडोर भी कैप्टन विक्रम बत्रा को ही सौंपी गई। उन्होंने अपनी जान की परवाह ना करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नय्यर और अपने अन्य साथियों के साथ इस अभियान को भी पूरा करने की जिम्मेदारी स्वीकार की।
इस अभियान पर जाने से पहले कैप्टन बत्रा ने 16 जून को अपने जुड़वा भाई विशाल को “ट्राश सेक्टर” से एक चिट्ठी भी लिखी थी जिसमें उन्होंने लिखा था कि “प्रिय कुश मां और पिताजी का ख्याल रखना और यहां कुछ भी हो सकता है।” उसके बाद 7 जुलाई 1999 को .4875 पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़े तब अचानक पाकिस्तानी सैनिकों ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। जब कैप्टन बत्रा ने देखा कि उनके साथी डेंजर जोन में है तो वे तेजी से पाकिस्तानी सैनिकों पर शेर की तरह टूट पड़े और उन्हें मौत के घाट उतार दिया। इस दौरान कैप्टन बत्रा में कई सारे दुश्मनों को मार गिराया। यह मिशन भी लगभग पूरा हो चुका था लेकिन इसी बीच में कैप्टन बत्रा की नजर अपने जूनियर साथी “लेफ्टिनेंट नवीन” पर पड़ी जोकि एक विस्फोट में बहुत बुरी तरीके से जख्मी हो गए थे और इसी बीच विक्रम बत्रा जब अपने साथी को कंधे पर लेकर आगे की ओर बढ़ी रहे थे, तभी एक छिपे हुए पाकिस्तानी सैनिक की गोली उनकी छाती में आग लगी। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपने साथी को सुरक्षित जगह पहुंचाया और पाकिस्तानियों पर टूट पड़े और अपनी आखिरी सांस लेने से पहले विक्रम बत्रा तिरंगा लहरा चुके थे और शहीद होने से पहले कैप्टन बत्रा के आखिरी शब्द थे “जय माता दी”।
जब 1999 में कारगिल में भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के बीच तकरार बढ़ी रहा था तब उस समय लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा छुट्टियों में अपने घर पालमपुर आए थे और वे “न्यू गल” नदी के किनारे अपने एक फेवरेट कैफे में अपने कुछ दोस्तों के साथ बैठे थे तभी उनके एक दोस्त ने उनसे कहा कि विक्रम अब कारगिल में लड़ाई शुरू हो चुकी है और तुम अपना ख्याल रखना। विक्रम बत्रा ने अपने दोस्त को जवाब दिया कि “डोंट वरी या तो मैं कारगिल में तिरंगा लहरा कर आऊंगा या फिर उसमें लिपट कर आऊंगा”।
पॉइंट.4857 हासिल करने के बाद कैप्टन विक्रम बत्रा ने अपने दोस्तों से किया वादा पूरा किया। उन्होंने तिरंगा लहराया भी और तिरंगे में लिपटकर भी आए।
एक बार युद्ध के दौरान उन्हें धमकी दी गई थी कि शेरशाह तुम्हारे लाशें उठाने वाला कोई नहीं होगा उन्होंने अपने दुश्मन को जवाब दिया था कि तुम हमारी परवाह ना करो बल्कि अपनी जान को सुरक्षित रखने के लिए दुआ मांगो। कारगिल युद्ध के बाद अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त 1999 को भारत की सबसे सर्वोच्च मिलिट्री सम्मान “परमवीर चक्र” से सम्मानित किए गए। कैप्टन बत्रा ने शहीद होने से पहले अपने बहुत से साथियों को बचाया था और उनके बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि अगर वे जिंदा वापस आते तो वे इंडियन आर्मी के हेड बन गए होते।
2003 में आई बॉलीवुड फिल्म “एलओसी कारगिल” में अभिषेक बच्चन कैप्टन विक्रम बत्रा का रोल भी अदा कर चुके हैं। किसी भी सैनिक का बलिदान कभी भी छोटा या बड़ा नहीं होता है लेकिन फिर भी कभी-कभी हमारे सामने कुछ ऐसे बहादुर और निर्भीक सैनिक एक ऐसा उदाहरण साबित कर जाते हैं, जिसे सुनने मात्र से ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और कैप्टन विक्रम बत्रा भी उन्हीं वीर बहादुर सैनिकों में से एक हैं। ऐसे ही वीर सिपाहियों के सर्वोच्च बलिदान के लिए हम सदा इनके ऋणी रहेंगे।