चंद्रगुप्त मौर्य जीवनी Chandragupta Mourya biography in hindi – 327 साल पहले मगध साम्राज्य पर नंद वंश के राजा धनानंद का शासन था। उत्तर में हिमालय से लेकर, दक्षिण में गोदावरी तथा पश्चिम में सिंधु से लेकर पूर्व के इतने विशाल मगध साम्राज्य का अधिपति सम्राट धनानंद एक लालची राजा था। धन पर आनंदित होने वाले धनानंद ने अपनी प्रजा पर तरह-तरह के “कर” लगा रखे थे। कहा जाता है कि धनानंद ने इसी इस धन से 99 करोड स्वर्ण मुद्राओं का विशाल भंडार भर लिया था। वह छोटी-छोटी वस्तुओं पर बड़े-बड़े कर लगाकर जनता से बलपूर्वक धन वसूला करता। परिणाम स्वरूप जनता नंदू के शासन के खिलाफ हो गई। चारों तरफ भय और गुस्से का वातावरण बनने लगा।
आर्यव्रत के इस महाजनपद मगध राज्य की सीमाओं पर इस समय यूनानी यवन सैनिक तलवारे लिए खड़े थे, परंतु सत्ता के मद में चूर धनानंद को इससे तनिक भी फर्क नहीं पड़ रहा था। इसी महाजनपद मगध राज्य के सीमावर्ती नगर में एक साधारण ब्राह्मण “आचार्य चणक” रहते थे। चणक को हर वक्त अपने देश की चिंता सताती रहती।चणक के एक मित्र “सकत्तार” धनानंद के दरबार में बड़े ओहदे वाले मंत्री थे, चणक ने सकत्तार के साथ मिलकर राजा धनानंद के शासन को उखाड़ फेंकने की योजना बनाई। परंतु इस परियोजना की खबर “महामात्य देवी दत्त” के पास पहुंच गई। देवी दत्त मगध के राजा धनानंद का एक खास मंत्री था और इसने चाणक्य और सकत्तार की बनाई गई योजना धनानंद को बता दी। धनानंद ने अपने खिलाफ चल रही योजना को सुनकर, तुरंत मंत्री सकत्तार और आचार्य चणक को बंदी बनाने का आदेश दिया। संपूर्ण राज्य में यह खबर फैल गई कि राजद्रोह के अपराध में एक ब्राह्मण की हत्या की जाएगी और इसी के साथ आचार्य चणक का कटा हुआ सर राजधानी के चौराहे पर टांग दिया गया। उस वक्त चाणक्य की आयु मात्र 14 वर्ष की थी। रात के अंधेरे में चाणक्य ने राजधानी के खंभे पर लटके अपने पिता के सर को नीचे उतारा और एक कपड़े में लपेटा। चाणक्य ने अकेले अपने पिता का दाह संस्कार किया, तब कौटिल्य ने गंगा का जल हाथ में लेकर शपथ ली कि “हे मां गंगे, जब तक हत्यारे धनानंद से अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध नहीं लूंगा, तब तक पकाई हुई कोई भी वस्तु नहीं खाऊंगा। जब तक महामात्य के रक्त से अपने बाल नहीं रंग लूंगा, तब तक अपनी यशिका खुली ही रखूंगा। मेरे पिता का तर्पण तभी पूर्ण होगा, जब हत्यारे धनानंद का रक्त पिता की राख पर चढ़ेगा। यमराज धनानंद का नाम तुम अपने लेखे से काट दो क्योंकि उसकी मृत्यु का लेख अब मैं खुद ही लिखूंगा।”
चाणक्य ने महाजनपद मगध साम्राज्य को छोड़कर तक्षशिला की ओर प्रस्थान किया और इसी तक्षशिला में चाणक्य ने अपने ज्ञान के झंडे बुलंद किए। इसी ज्ञान के दम पर चाणक्य तक्षशिला के “महान आचार्य” बन चुके थे। उनके ज्ञान की ख्याति नगर- नगर में फैलने लगी।
चाणक्य की निगाहें एक वीर को खोज रही थी एक ऐसे वीर को जो मगध के साम्राज्य की नींव हिला कर रख दे। एक ऐसा महावीर जो सम्राट धनानंद को मारकर मगध साम्राज्य का महाराजाधिराज बनकर चाणक्य के सपनों को हकीकत में बदलने की ताकत रखता हो।
इन्हीं दिनों चाणक्य अपने आश्रम से जंगल के रास्ते तक्षशिला विश्वविद्यालय जा रहे थे, तभी जंगल में कुछ बच्चे राजा- प्रजा का खेल खेल रहे थे। चाणक्य की निगाहें उस राजा बने बच्चे पर जाकर रुक गई। चाणक्य को यह जानने की जिज्ञासा हुई कि खुले विचारों ऊंची प्रतिभा और महान कद काठी का यह महावीर आखिर कौन है? चाणक्य उस बच्चे की ओर बढ़ रहे थे कि तभी जंगल में एक चीते को देख सारे बच्चे भाग गए पर राजा बने हुए उस वीर बालक ने झट से अपनी तलवार निकाल ली और चाणक्य और बाघ के सामने दीवार बनकर खड़ा हो गया। चीते के चाणक्य तक पहुंचने से पहले ही वह वीर चीते से भिड़ गया और उसने चीते को धराशाई कर दिया। इस वीर की वीरता से चाणक्य अत्यंत प्रसन्न हुए। चाणक्य ने वीर से पूछा तुम तुम इतने वीर और साहसी कैसे बने? वीर का जवाब था – मैं राजा बना था और राजा का काम अपनी प्रजा की रक्षा करना होता है। इसलिए मैं अकेला ही लड़ा। फिर मुझे मगध के राजा धनानंद से भी तो अकेले ही लड़ना पड़ेगा। चाणक्य ने पूछा धनानंद से तुम्हें क्यों लड़ना है ? वीर ने जवाब दिया क्योंकि उस क्रूर ने मेरी माता को अपमानित कर, मेरी मां को राजभवन से धक्के मार कर निकाल दिया था। चाणक्य ने वीर से पूछा तुम्हारा नाम क्या है आर्यपुत्र? वीर का जवाब था चंद्रगुप्त मौर्य। “वीर विराट सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य” इतने वीर बाहुबली देव पुरुष के इन वचनों को सुनकर चाणक्य भविष्य में जागने लगे, जहां यह वीर मगध के महाराजा बने बैठे थे। चाणक्य ने वीर से पूछा इतने महान वीर का गुरु कौन है वीर का जवाब था- मेरा कोई गुरु नहीं है। तब चाणक्य ने वीर से कहा मैं भी धनानंद से अपने पिता की मौत का बदला चाहता हूं और तुम अपनी माता के अपमान का बदला लेना चाहते हो तो हम दोनों नदियां मिलकर एक समुंद्र का रूप धारण कर ले। आज से तक्षशिला का यह महा अचार्य चाणक्य तुम्हारा गुरु होगा। वीर चंद्रगुप्त ने चाणक्य को अपना गुरु स्वीकार करते हुए गुरु को प्रणाम किया।
इस के बाद चाणक्य बालक चंद्रगुप्त को किसी अज्ञात स्थान पर ले गए। धनानंद के साम्राज्य से टक्कर लेना कोई आसान खेल नहीं था। “देव गुप्त” और “कात्यायन” जैसे कुटिल नीतिज्ञ उसके खास मंत्री थे और राजा धनानंद क्रूर और एक ताकतवर योद्धा था। जिसने सिकंदर जैसे योद्धा को भी ब्याज सतलुज के मैदानों से वापस रवाना कर दिया था। कोई भी शासक धनानंद से टकराने का साहस नहीं करता था क्योंकि उसके पास सेना में 200000 की पैदल सेना, 20000 गुण सेना, दो हजार रथ और तीन हजार हाथियों की एक महासेना थी। ऐसे में धनानंद के शासन को उखाड़ फेंकने का साहस कोई नहीं कर सकता था। इसके लिए कठिन तैयारी, सैन्य शक्ति और जन समर्थन की आवश्यकता थी और चाणक्य इस बात को भली प्रकार से जानते थे।
बालक चंद्रगुप्त को सबसे पहले शास्त्रों की शिक्षा दी गई, इसके बाद अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी गई और अंत में चंद्रगुप्त को राजनीति और गोपनीयता का पाठ पढ़ाया गया। बालक चंद्रगुप्त हर कड़ी परीक्षा में पास हुआ। चंद्रगुप्त रात दिन शस्त्र और शास्त्र का अभ्यास करते रहते। वे दिन- रात, नींद आदि को तो भूल ही चुके थे। अपने कठिन परिश्रम की आग में तप कर चंद्रगुप्त सोना बन रहा था। लगभग कुछ सालों में बालक चंद्रगुप्त एक महा योद्धा बन चुके थे। अब जब चंद्रगुप्त की परीक्षा का दिन आया तब चाणक्य ने चंद्रगुप्त से कहा -जाओ फिर से उसी जंगल में जाओ, जहां से तुम आए थे। जंगल में रहने वाली जातियों और जनजातियों के लोगों को इकट्ठा करो, उनमें से योद्धाओं को चुनो और एक राष्ट्रीय सेना का निर्माण करो। आदिवासियों में जनचेतना जागृत करो, उनको संगठित करो, लेकिन ध्यान रहे यह कार्य बहुत ही गुप्त तरीके से करना है। जब यह कार्य संपन्न हो जाए, तब तुम मेरे पास वापस आ जाना। चाणक्य को प्रणाम करते हुए चंद्रगुप्त ने कहा- जो आज्ञा गुरुदेव। चंद्रगुप्त ने अपने तीर कमान उठाए और तलवार को अपने कमर में घुसाया और घोड़े पर सवार होकर फिर से उसी जंगल की ओर चल दिए, जहां से वह आए थे। अब वह बालक नहीं बल्कि एक युवा योद्धा चंद्रगुप्त महान बन चुके थे।।
सम्राट चंद्रगुप्त अखंड भारत के सपनों को सच करते हुए पूरी दुनिया में भारत की धाक कायम करने वाला एक सूरमा था। सम्राट चंद्रगुप्त ने नंदू की सेनाओं को पाटलिपुत्र के मैदानों में चकनाचूर कर के रख दिया। इतिहास के महान कहे जाने वाले सिकंदर की सेनाओं को संपूर्ण उग्रस्तान से वापस रवाना कर दिया। सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस पर, दमादम धावों के साथ अपनी जीत के झंडे बुलंद किए और उसे दो बार बंदी भी बनाया। ईरान फारस से लेकर पूरी बंगाल और कश्मीर से लेकर कर्नाटक तक के महान साम्राज्य के अधिपति सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य, कलिंग और तमिल को छोड़कर संपूर्ण अखंड भारत के निर्माता थे। जिस समय चंद्रगुप्त जंगल में योद्धाओं को इकट्ठा करके एक सेना का निर्माण कर रहे थे, उसी समय सिकंदर राजा पोरस पर हमले की तैयारी कर रहा था। “जेनब” और “चुनार” नदियों के साम्राज्य पर राज करने वाले, राजा पोरस एक महान राजा थे इसके दूसरी तरफ आचार्य चाणक्य कंधार और भारत के सभी 16 महाजनपदों के राजाओं को इकट्ठा करके सिकंदर को करारी टक्कर देने की तैयारी कर रहे थे। चाणक्य ने सभी 16 महाजनपदों के राजाओं को अखंड भारत की अखंड सेना के निर्माण की योजना बनाई, परंतु यह योजना सफल नहीं हो पाई। जिसके बाद सिकंदर और राजा पोरस के बीच एक महा भयानक युद्ध हुआ, जिसे दुनिया ने “बैटल ऑफ हाई ला स्पेस” के नाम से जाना।
ईसा के जन्म के 323 साल पहले सिकंदर की मृत्यु हो गई और इस समय तक सिंधु, कंधार, ईरान और पंजाब के कई बड़े हिस्सों पर सिकंदर के सेनापतियों का कब्जा था। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपनी छोटी-सी सेना के साथ, पंजाब की यूनानी सैनिकों पर दावे बोलना शुरु कर दिया कहा जाता है कि चंद्रगुप्त ने लगातार हमले करने शुरू कर दिए जिसके बाद यूनानी यों ने पंजाब के इलाके को खाली कर दिया। इसी के बाद संपूर्ण पंजाब पर चंद्रगुप्त मौर्य का शासन स्थापित हो गया। इतिहास में इस घटना को “चंद्र राज्य रोहण” के नाम से जाना जाता है। पंजाब को जीत कर चंद्रगुप्त मौर्य पंजाब के राजा और चाणक्य प्रधानमंत्री बन चुके थे। यही अपनी पहली जीत के बाद चाणक्य ने अखंड भारत का बिगुल फूंका और इसी के साथ वीर विराट चंद्रगुप्त मौर्य ने पंजाब में एक शक्तिशाली सेना की स्थापना की।
इसी महा सेना के साथ 322 ईसा पूर्व चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध की राजधानी “पाटलिपुत्र” पर सीधा हमला कर दिया। इस महायुद्ध में, नंद वंश के राजा धनानंद का वध कर दिया गया। इसी के साथ वीर विराट चंद्रगुप्त मौर्य ने संपूर्ण पाटलिपुत्र पर अपनी विजय पताका फहराई। यहीं से मौर्य वंश की शुरुआत के साथ चंद्रगुप्त मौर्य का “राज्य अभिषेक” किया गया। इसी के साथ चंद्र गुप्त मौर्य ने पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण में अपने कई सैनिक अभियान भेजें और इन्हीं लगातार जीत के बाद मौर्य साम्राज्य लगातार फैलता जा रहा था। वही चंद्रगुप्त अब “सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य” बन चुके थे।
इसी समय सीरिया के शासक “सेल्यूकस निकेटर” को समाचार मिले कि एक 26 साल के लड़के ने पंजाब को जीतकर यूनान के राज्य को तहस-नहस कर डाला और संपूर्ण राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। इसी हमले के जवाब में साल 305 ईसा पूर्व सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त मौर्य पर हमला कर दिया। इस हमले में चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस की सेनाओं पर ताबड़तोड़ धावा बोला। सेल्यूकस का हर योद्धा, चंद्रगुप्त के सामने घुटने टेक चुका था। यह सेल्यूकस के इतिहास की सबसे करारी हार साबित हुई। इतिहास में इस घटना को “शिकारी का खुद शिकार बन जाना” कहा गया। सेल्यूकस की सेना को, सम्राट की सेना ने चारों तरफ से घेर लिया। चंद्रगुप्त महान निकेटर के सामने खड़ा था तभी सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त महान के साथ अपनी हार स्वीकारते हुए संधि की। इस संधि के तहत सेल्यूकस ने सम्राट चंद्रगुप्त को बलूचिस्तान, हेरात, कंधार और काबुल राज्यों का राजा घोषित कर दिया। सेल्यूकस चंद्रगुप्त मौर्य से इतना भयभीत हुआ कि उसने अपनी बहन “हेलेना” का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य के साथ करवा दिया। सम्राट द्वारा यह चारों राज्यों का शासन जीत लेने के बाद सम्राट चंद्रगुप्त एक विशाल साम्राज्य के सम्राट बन चुके थे।
यूनानी यात्री “मेगस्थनीज” सम्राट के दरबार में कई सालों तक यूनान का राजदूत बनकर रहा। जिसने सम्राट के दरबार में रहते हुए “इंडिका” नामक किताब लिखी।
इन्हीं साम्राज्य विस्तार के बाद मौर्य काल में भारत में लगातार 12 सालों तक भयंकर अकाल पड़ा। इसी अकाल में सम्राट चंद्रगुप्त अत्यधिक परेशान हो गए। अंत में उन्होंने ब्राह्मणों तथा संतों की सभा बुलाई और अकाल से मुक्ति के मार्ग पूछे। इसी सभा में साल 298 साल पूर्व सम्राट के दरबार में जैन साधु “भद्रबाहु” पधारे। उन्होंने सम्राट से कहा कि इस अकाल का कारण महाराज आपके कर्म है। आपने अखंड भारत के सपनों को सच करने के लिए, 16 महाजनपदों के कई कई राजाओं का वध किया, जिसके कारण ही अकाल पड़ा है। सम्राट ने पूछा -इसका क्या उपाय है ? संत भद्रबाहु का जवाब था “संथारा”। संथारा का अर्थ था -“राजपाट छोड़कर गुप्त स्थान पर, भूखे प्यासे रहकर, अपने अंतिम सांस तक अपने इष्ट आराध्य का ध्यान करते रहो।”
इसी के साथ सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन मुनि भद्रबाहु से “जैन धर्म” की दीक्षा लेकर अपना राजपाट, अपने पुत्र “बिंदुसार” को सौंपते हुए “संथारा व्रत” के लिए कर्नाटक के जंगलों की तरफ निकल गए। इस तरह से सम्राट ने अखंड भारत पर एकछत्र शासन स्थापित किया लेकिन वे दक्षिण भारत के कलिंग और तमिल को कभी नहीं जीत पाई। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के पोते “सम्राट अशोक” ने अपने दादा का सपना पूरा करते हुए अंत में कलिंग विजय कर लिया था।