Louis Pasteur biography in hindi – 19वीं सदी के महान वैज्ञानिक लुइ पाश्चर का स्थान किसी भगवान से कम नहीं है। लुइ पाश्चर ने कई महान खोजे की। इनके द्वारा की गई खोज से हजारों ने लाखों जिंदगियों को बचाया गया। आज भी उनके द्वारा किए गए खोज का काम इलाज के लिए किया जाता है। 2020 में चीन से आया कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया। इस वायरस से पूरी दुनिया में खौफ का मंजर देखने को मिलने लगा। लेकिन अगर यह कोरोना वायरस 18वीं शताब्दी में आया होता तो क्या होता? उस समय तो अच्छे मेडिकल और अस्पताल भी नहीं थे। लुइ पाश्चर ने उस समय ऐसी खोजे कि जिससे उनकी गिनती महान वैज्ञानिकों में की जाती है और आज भी दुनिया को उनकी खोजों से बहुत लाभ होता है।
लुइ पाश्चर का जन्म 27 दिसंबर 1922 को फ्रांस के “डोल” शहर में हुआ था। उनके पिता चमड़े के व्यापारी थे। वह सोचते थे मगर मैं पढ़ लिख लिया होता, तो पूरे दिन मरे हुए जानवरों का बदबूदार चमड़ा नहीं उतारना पड़ता। उनकी यह तमन्ना थी कि जो काम मैं कर रहा हूं, मेरा पुत्र यह काम ना कर के पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बने। वह सोचते थे काश! वो अच्छे से पढ़ लिख जाते तो किसी बड़े ऑफिस में आराम से कुर्सी पर बैठकर हुकुम चला रहे होते। उन्होंनेेे निश्चय किया कि भले ही वह ना पढ़ पाए हो, लेकिन वह अपने बच्चे को जरूर पढ़ा लिखा कर बड़ा अफसर बनाएगा।
जब लुई पाश्चर 5 साल का हुआ तो पिता ने निर्धन होने के बावजूद भी उसका दाखिला बेहद महंगे विद्यालय में करवाया। किंतु पिता को तो बहुत दुख हुआ जब उन्होंने पाया कि उनका बच्चा पढ़ाई में बेहद कमजोर था। कक्षा के साथी छोटे लुई को मंदबुद्धि कहकर उसका मजाक उड़ाते थे। वैसे तो लुई बहुत ही मेहनती थे। स्कूल में जाने के साथ-साथ पिता के काम में भी उनका हाथ बटाते थे लेकिन पढ़ाई में अच्छे नहीं थे।
तभी अचानक से एक अनहोनी घटना घटी। जिस गांव में लुई और उसके पिता रहा करते थे। वह गांव जंगल के बेहद करीब था और उस जंगल में काफी भेड़िए रहा करते थे। जंगल से पागल हो चुका एक भेड़िया आया और उसने एक ही दिन में गांव के 8 लोगों को काट लिया है। दिन बीतने के साथ-साथ गांव वालों ने किसी तरह से उसका काम तमाम कर दिया लेकिन उस पागल द्वारा काटे गए 8 लोगों में से 5 लोग अगले कुछ सप्ताह में रेबीज का शिकार हो गए। उन पांचों लोगों के हालात बिल्कुल पागलों जैसी ही हो गई थी। वह अजीबोगरीब हरकतें करने लगे। पानी को देखकर डरने लगे और अगले कुछ दिनों में उनकी तड़प तड़प के मौत हो गई। बालक लुई ने उन लोगों का तड़पना देखा, वह छोटे होने के बावजूद भी हर तरह से उनकी मदद करना चाहते थे। किंतु उन लोगों की मदद एक बालक तो क्या दुनिया का कोई बड़े से बड़ा डॉक्टर भी नहीं कर सकता था क्योंकि rabies हाइड्रोफोबिया पूर्ण रूप से लाइलाज बीमारी है।
गांव वालों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। अक्सर जंगल से पागल भेड़िया या कोई पागल कुत्ता गांव वालों को काट लेता था जिसकी वजह से लोगों की मौतें होती रहती थी। किंतु लुई ने अपने जीवन में यह पहली बार देखा था। वह हमेशा अपने पिता से पूछते रहते हैं कि क्यों नहीं उन लोगों को बचाया जा सका? उन्हें कोई दवाई देकर ठीक क्यों नहीं किया गया? परेशान होकर उनके पिता ने कहा कि बेटा तुम खुद क्यों नहीं उस बीमारी का इलाज ढूंढते। खूब पढ़ो। नहीं खोजें करो। अगर तुम दिल लगाकर पढ़ाई करोगे तो इस बीमारी का इलाज भी खोज लोगे। बस यही बात बालक लुई के दिमाग में घर कर गई। उन्हें लगा कि अगर पढ़ाई करने से इस बीमारी का इलाज ढूंढा जा सकता है तो मैं रात दिन पढ़ लूंगा और इस तरह से लोगों को नहीं मरने दूंगा। फिर लुई ने ध्यान लगाकर पढ़ना शुरू किया जिससे उनके पिता बहुत खुश हुए।
स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद लुई को आगे की पढ़ाई के लिए पिता ने पेरिस भेजा। इन सब के लिए उनके पिता को बहुत बड़ा कर्ज भी लेना पड़ा था। लुई ने विज्ञान के हर क्षेत्र में पढ़ाई की। पहले रसायन विज्ञान, फिर भौतिकी की पढ़ाई की।
1842 में वह “स्टोर्स बर्ग विश्वविद्यालय” में बतौर प्राध्यापक पढ़ाने लगे। किंतु दूसरों को पढ़ाने के साथ-साथ उन्होंने खुद ज्ञान अर्जित करना कभी नहीं छोड़ा और इस दौरान उन्होंने जीव विज्ञान को समझना शुरू किया। लुई ने अपने प्रयोगों में पाया कि लगभग हर खाने वाले पदार्थ में बेहद ही छोटे कीड़े होते हैं। यह कीड़े कितने छोटे होते हैं की नग्न आंखों से देख पाना संभव नहीं होता बल्कि सिर्फ सूक्ष्म दर्शी की सहायता से ही इन्हें देखा जा सकता है। लुई ने इन इन कीड़ों को “जीवाणु” का नाम दिया। इससे पहले जीव विज्ञान के क्षेत्र में जीवाणु जैसे किसी जीव के बारे में कोई भी नहीं जानता था। लुई ने जाना कि इन जीवाणुओं की वजह से ही खाने-पीने की चीजें जल्दी खराब हो जाती है। उन्होंने देखा कि यह जीवाणु अधिक तापमान बर्दाश्त नहीं कर पाते। उन्होंने दूध को 75 डिग्री सेल्सियस पर गर्म करके, तुरंत ठंडा किया तो पाया कि अब दूध पहले की तरह जल्दी से खराब नहीं होता क्योंकि गर्म करके ठंडा करने के कारण दूध के सभी जीवाणु मारे गए। वास्तव में दूध के अंदर मौजूद जीवाणु ही दूध को खराब करते थे। दूध को गर्म करके ठंडा करने की तकनीक को “पाश्चराइजेशन तकनीक”(Pasteurization technique) कहा जाता है।
अब लुई के दिमाग में एक ख्याल आया जिस तरह से यह जीवाणु हर खाने पीने की चीजों में पाए जाते हैं। हो सकता है इसी तरह से यह जीवाणु हमारे शरीर में भी पाए जाते हो और जीवाणु हमें बीमार करते हो हो ना हो। रेबीज के लिए भी यही सूक्ष्म कीड़े जिम्मेदार हैं। उन्होंने सोचा कि अगर किसी तरह से मैं रेबीज कीड़ों की पहचान करके, उन्हें खत्म करने का तरीका समझ लूं, तो संसार को सदा के लिए इस जानलेवा बीमारी से छुटकारा मिल सकता है। बस इसके बाद लुई ने ना रात देखा और ना दिन। उन्हें जहां कहीं किसी रेबीज हो चुके, कुत्ते या भेड़िया देखे जाने की खबर मिलती, तो वह तुरंत वहां पहुंच जाते। फिर भले ही वह जानवर उन्हें काट कर खुद उन्हें रेबीज का शिकार बना दें। लेकिन वह हर हाल में अपनी जान जोखिम में डालकर उस जानवर को पकड़ते और उसके रक्त की जांच करते। उन्हें ना खाने की सुध थी ना खुद के परिवार की। मानवता की भलाई के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी पागल कुत्तों की धरपकड़ को ही समर्पित कर दी। परिवार की तरफ ध्यान न दिए जाने के कारण उनकी पत्नी भी उनसे नाराज रहने लगी।
किंतु लुई पाश्चर को अपने त्याग का परिणाम मिला उन्होंने रेबीज के वायरस की पहचान कर ली। उन्होंने जाना कि पागल कुत्ते के शरीर के साथ -साथ लार में भी यह वायरस मौजूद होता है और जब रेबीज से प्रभावित जानवर किसी स्वस्थ इंसान या अन्य जानवर को काटता है तो उसके मुंह की लार से निकला रेबीज वायरस के माध्यम से स्वस्थ जानवर के शरीर में प्रवेश कर जाता है और उस दूसरे जानवर को भी रेबीज से संक्रमित कर देता है। लेकिन अब सबसे बड़ी चुनौती थी के शरीर के अंदर पहुंच चुके इस वायरस को नष्ट कैसे किया जा सकता है। अब दूध की तरह मानव शरीर को उबाला तो नहीं जा सकता।
लुई पाश्चर यह भली-भांति जानते थे कि हमारे शरीर के अंदर सभी प्रकार के रोगों से लड़ने के लिए एक शक्ति छुपी हुई होती है जिसे हम ” रोग प्रतिरोधक प्रणाली” कहते हैं। लेकिन वह यह समझ नहीं पा रहे थे कि हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक प्रणाली रेबीज के वायरस से लड़ने में हार क्यों मान जाती है। तभी उनके किसी दोस्त ने उन्हें अपनी मुर्गियों में फैले गए किसी “हैजा” जैसे रोग के बारे में बताया। उनके दोस्त ने कहा कि एक-एक करके उनकी सभी मुर्गियां मर रही है। लुई पाश्चर ने अपने प्रयोग उन बीमार मुर्गियों के साथ शुरू कर दिए। उन्होंने पाया कि कुछ ऐसे भी जीवाणु या विषाणु होते हैं जो किसी भी जीव की रोग प्रतिरोधक क्षमता को चकमा दे देते हैं यानी हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता उस विषाणु से लड़ सकती है और उसे नष्ट भी कर सकती है। किंतु वह विषाणु हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता से छुपकर अपना कार्य करता है तो कैसे इतने होशियार हो चुके विषाणु की पहचान रोग प्रतिरोधक क्षमता से कराई जाए, क्योंकि एक बार हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता उस विषाणु को पहचान पाती है तो निश्चित तौर पर उस विषाणु से लड़ भी पाएगी, लेकिन यह सब कैसे होगा, यह सोचते- सोचते हैं लुई पाश्चर ने खाना पीना और सोना भी छोड़ दिया।
मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है। आखिरकार लुइ पाश्चर को सफलता मिली। मुर्गियों के साथ अपने प्रयोगों के दौरान उन्होंने मर चुकी मुर्गियों के रक्त से, उन्हें बीमार करने वाले विषाणु को निकाला और उन विषाणुओ को एक खास तरह के लवण में डाला। इस लवण के प्रभाव से विषाणु निष्क्रिय हो चुके थे। अब इस लवण का इंजेक्शन उन्होंने उन मुर्गियों को लगाना शुरू किया जो बीमारी से प्रभावित नहीं थी बल्कि बिल्कुल स्वस्थ थी। नतीजे हैरान कर देने वाले थे जिन जिन मुर्गियों को इंजेक्शन लगाया गया था उन्हें आगे चलकर कोई बीमारी नहीं हुई है जबकि बाकी की मुर्गियां जिन्हें इंजेक्शन नहीं लगाया गया था, यूं ही बीमारी से प्रभावित होकर मरती रही। लुई का अंदाजा बिल्कुल सही साबित हुआ असल में जब लवण से निष्क्रिय किए गए विषाणु मुर्गियों के शरीर में गए तो वह विषाणु निष्क्रिय होने की वजह से मुर्गियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा पाए और ना ही उन्हें सक्रिय विषाणु की तरह खुद को छुपाना आया और मुर्गियों की रोग प्रतिरोधक क्षमता ने उनकी पहचान करके उन्हें खत्म करने की ने शक्ति विकसित कर ली और उसी शक्ति ने निष्क्रिय और सक्रिय दोनों तरह के ही विषाणुओ को नष्ट कर दिया। अब इस हैजा जैसी बीमारी के विषाणु मुर्गियों के शरीर पर बेअसर हो चुके थे।
मानवता के इतिहास में यह बहुत बड़ी खोज थी। इसी खोज को आधार मानकर अगले कुछ दशकों में अनेकों प्राण घातक बीमारियों के इलाज विभिन्न खोजकर्ता ने ढूंढे। लुई पाश्चर ने इस खोज से उत्साहित होकर जब अपने प्रयोगों को आगे बढ़ाया तो उन्हें अपने बचपन के सपने रेबीज के इलाज को ढूंढने में सफलता मिल गई। उन्होंने रेबीज के वायरस को निष्क्रिय कर के एक स्वस्थ कुत्ते में डाला जिससे उस कुत्ते के शरीर में मौजूद रोग प्रतिरोधक क्षमता ने उस वायरस को पहचान कर उसे बेअसर करने की शक्ति इजाद कर ली। जब उस कुत्ते के शरीर में रेबीज के सक्रिय वायरस डाले गए तो भी कुत्ते को रेबीज नहीं हुआ। वह बिल्कुल स्वस्थ रहा क्योंकि कुत्ते के शरीर में रेबीज के वायरस से लड़ना सीख लिया था।
शुरुआती अनुसंधान के नतीजे बेहद सकारात्मक थे जिससे लुइ पाश्चर बेहद खुश और उत्साहित थे। किंतु यह प्रयोग मनुष्य के शरीर पर भी सकारात्मक असर दिखाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं थी। लुई इसी विषय पर अनुसंधान कर ही रहे थे। एक महिला अपने बच्चे को लेकर उनके पास रोते हुए आई महिला ने बताया कि 2 दिन पहले एक पागल कुत्ते ने उसके बच्चे को काटा है और हर घंटे उसके बच्चे के हालात खराब हो रहे हैं। लुइ पाश्चर ने जांच की तो पाया कि बच्चे को कुत्ते ने बुरी तरह से काट लिया था। जिस कुत्ते ने बच्चे को काटा था, लुइ पाश्चर ने किसी तरह से उस कुत्ते को पकड़ कर उसकी जांच की, तो पाया कि वह कुत्ता रेबीज का शिकार था यानी अब वह बच्चा भी रेबीज का शिकार हो जाएगा। भले ही लुई पाश्चर ने रेबीज के इलाज को सफलतापूर्वक एक कुत्ते पर आजमा लिया था, किंतु किसी इंसान पर इस इलाज को आजमाना बेहद जोखिम भरा काम हो सकता था क्योंकि शरीर को रेबीज के प्रति रोग प्रतिरोधक बनाने के लिए रेबीज का ही वायरस बच्चे के शरीर में छोड़े जाना था। भले ही वह वायरस निष्क्रिय होता लेकिन फिर भी मानव शरीर में जाकर वह क्या असर करता, इसका किसी को कोई अंदाजा नहीं था। बच्चे की मां लुइ के सामने अपने बच्चे के प्राण बचाने के लिए गुहार लगा रही थी, किंतु लुई के सामने बहुत बड़ा धर्म संकट था। उनके द्वारा बनाई गई वैक्सीन अभी शुरुआती स्टेज पर ही थी। अभी उन्हें बहुत सारे प्रयोग करके देखने बाकी थे। अगर वह बच्चे पर अपना प्रयोग करते और सफल ना हो पाते तो, बच्चे के खराब होते हालात का सारा दोस्त निश्चित रूप से लुई पाश्चर के सिर मढ़ दिया जाता। उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता और उन्हें जेल की हवा खानी पड़ सकती थी या फिर बच्चे की मौत हो सकती थी। लेकिन वैक्सीन ना आजमाने की स्थिति में भी बच्चे की मौत होना निश्चित था इसलिए लुई ने वैक्सीन आजमाने का फैसला लिया। उन्होंने शुरुआत में कम मात्रा में निष्क्रिय रेबीज वायरस बच्चे के शरीर में इंजेक्ट किए। फिर वह प्रतिदिन दवाई की मात्रा बढ़ाते रहें। ऐसा करते करते उन्होंने लगातार 21 दिनों तक उस बच्चे को इंजेक्शन दिए और आखिरकार उन्हें पूरी मानवता की रक्षा करने वाली, महान आश्चर्यजनक सफलता मिली। उस बालक को रेबीज नहीं हुआ।
लुई पाश्चर की खोज ने मेडिकल की दुनिया में क्रांति ला दी है, और मानवता को एक बहुत बड़े संकट से बचा लिया। रेबीज मानव के इतिहास की सबसे प्राचीन बीमारी मानी जाती है। प्राचीन समय में गुफाओं में भी इस बीमारी से संबंधित चित्रण मिलते रहे हैं और इस अति प्राचीन बीमारी के इलाज के लिए जब 1885 में लुइ पाश्चर ने रेबीज के टीके की खोज की, तो उसने पूरे विश्व की जनसंख्या 150 करोड़ थी और हर साल करीब एक करोड़ लोग को तो कुत्तों, भेड़ियों, गीदड़ओ और चमगादड़ओ आदि द्वारा काटे जाते थे। यह तमाम जानवर रेबीज के प्रमुख जनक है। हालांकि रेबीज हो जाने के बाद उसका कोई इलाज मुमकिन नहीं है। लेकिन किसी पागल जानवर के काटने के तुरंत बाद से लेकर 3 दिन तक अगर रेबीज का टीकाकरण शुरू हो जाए तो लगभग 100% मौकों पर रेबीज हो ही नहीं पाता। इस महान उपलब्धि के बाद लुई को फ्रांस सरकार ने सम्मानित किया और उनके नाम से “पाश्चर संस्थान” की स्थापना की गई।
किंतु लुइ पाश्चर, समाज का भला करने की धुन में खुद के परिवार का ख्याल नहीं रख पाए। जिस समय वह रेबीज के टीके के लिए अनुसंधान कर रहे थे, उसी दौरान उनकी तीन बेटियों में से 2 की मौत ब्रेन ट्यूमर की वजह से हो गई और तीसरी बेटी टाइफाइड का शिकार होकर चल बस्सी। बच्चियों मौत के बाद लुई पाश्चर की पत्नी को अपने पति के सहारे की बहुत जरूरत थी, लेकिन दिन प्रतिदिन लुई समाज की भलाई के लिए रेबीज के इलाज को लेकर नित नए प्रयोग करते थे। वह या तो समाज की भलाई के लिए समय निकाल सकते थे या पत्नी के लिए। उन्होंने समाज को चुना। अकेला पड़ जाने के कारण ही लुई की पत्नी मानसिक रोग का शिकार हो गई। थोड़े समय बाद लुई पाश्चर का आधा शरीर भी लकवा ग्रस्त हो चुका था। इसके बावजूद वे अनुसंधान जारी रखे हुए थे। 1895 में 73 साल की उम्र में लुई पाश्चर की मृत्यु हो गई।
मानवता की रक्षा में लुई पाश्चर का योगदान अतुलनीय है। लोगों की जान बचाने के लिए अपना सब कुछ बलिदान करने वाले यह विज्ञानिक महान है।
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