//Vinayak Damodar Savarkar – Indian Independence Activist and Politician / विनायक दामोदर सावरकर
Biography of Vinayak Damodar Savarkar in hindi

Vinayak Damodar Savarkar – Indian Independence Activist and Politician / विनायक दामोदर सावरकर

Biography of Vinayak Damodar Savarkar in hindi – आधुनिक भारत में विनायक दामोदर सावरकर का नाम चर्चा में रहता है। जितने लोग उनके विचारों का समर्थन करते है उतने ही विरोध भी करते हैं, लेकिन सावरकर के अस्तित्व को आधुनिक विमर्श में नकारा नहीं जा सकता। स्वतंत्रता आंदोलन, धर्म सुधार, सामाजिक विषमताओं और दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने जो काम किया है, उस पर आज के राजनीतिक हालात में चर्चा आवश्यक है। उनको लेकर उनके विरोधियों के साथ-साथ समर्थकों में भी कई भ्रांतियां हैं।

विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले में हुआ। उनके पिता का नाम “दामोदर पंत सावरकर” था। जब सावरकर 9 वर्ष के थे तब उनकी माता “राधाबाई” का निधन हो गया। इसके 7 वर्ष बाद उनके पिता का भी निधन हो गया। इसके बाद उनके बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन पोषण की जिम्मेदारी ली। 1901 में उन्होंने नासिक के “शिवाजी हाई स्कूल” से मैट्रिक के परीक्षा पास की। 1901 में ही उनकी शादी “यमुनाबाई” के साथ हो गई।

इस दौरान तमाम परेशानियों के दौरान भी उन्होंने पढ़ाई जारी रखने का फैसला लिया। पुणे के मशहूर कॉलेज से स्नातक करने के बाद वह पढ़ाई करने लंदन चले गए। पढ़ाई के दौरान उनका झुकाव राजनीतिक गतिविधियों की तरफ हुआ। 1904 में सावरकर ने “अभिनव भारत” नाम का संगठन बनाया। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में हुए आंदोलन में सक्रिय रहे और कई पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख भी छपे।

रूसी क्रांति का उनके जीवन पर गहरा असर हुआ। लंदन में उनकी मुलाकात “लाला हरदयाल” से हुई जो उन्हें उन दिनों “इंडिया हाउस” की देख रेख करते थे और साथ में इंडिया हाउस में 1857 की पहली स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती के कार्यक्रम में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। जुलाई 1909 को मदनलाल धींगरा ने कर्जन वैली को गोली मार दी। इसके बाद सावरकर ने “लंदन टाइम्स” में एक लेख लिखा था। 13 मई 1910 को उन्हें गिरफ्तार किया गया। 8 जुलाई 1910 को सावरकर ब्रिटिश गिरफ्त से भाग निकले। 24 दिसंबर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। 31 जनवरी 1911 को दोबारा आजीवन कारावास दिया गया और 7 अप्रैल 1911 को उन्हें “काला पानी की सजा” पर पोटप्लेयर की “Cellular Jail” में भेज दिया गया। सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोटप्लेयर जेल में रहे। इसके बाद उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए उन्हें रिहा कर दिया गया।

आजादी तक वह विभिन्न सामाजिक धार्मिक राजनीतिक मंचों पर सक्रिय रहे। फिर उन्हें महात्मा गांधी की हत्या के बाद गिरफ्तार किया गया। इसके बाद 10 नवंबर को आयोजित प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शताब्दी समारोह में मुख्य वक्ता रहे। 1959 में “पुणे विश्वविद्यालय” से “डी लिट” की उपाधि से सम्मानित किया गया। नवंबर 1963 में उनकी पत्नी का देहांत हो गया। 1965 में सावरकर को बीमारी ने घेर लिया। इसके बाद 26 फरवरी 1966 को सुबह 10:00 बजे उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले सावरकर न केवल क्रांतिकारी थे बल्कि प्रखर राष्ट्रवाद के समर्थक भी थे। बचपन से ही राष्ट्रवादी विचारधारा के संस्थापक विनायक दामोदर सावरकर ने 1904 में “अभिनव भारत” के नाम से एक क्रांतिकारी गठन की स्थापना की। जिसका मकसद अंग्रेजों से, भारत को आजाद कराना था। राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित सावरकर ने 1905 में बंगाल विभाजन के बाद स्वदेशी का नारा दिया और पुणे में विदेशी वस्तुओं की होली भी जलाई। अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा के चलते सावरकर देश के विभाजन के विरोधी थे। वह मानते थे कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग सांस्कृतिक कौम है जिनकी अपनी अलग-अलग जरूरत हैं। लेकिन देश के लिए, दोनों भारत के अभिन्न अंग हैं इसलिए देश का विभाजन नहीं होना चाहिए।

सावरकर ने अपने राष्ट्रवाद की विचारधारा को बढ़ाने के लिए अनेक समाज सुधार कार्यक्रम भी चलाए। हिंदू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने के लिए सावरकर ने लगातार लगे रहे। चाहे वह वैचारिक स्तर पर हो या भाषण के तौर पर या लेखन के तौर पर। राष्ट्रवाद की भावना से भरी सावरकर की पुस्तकें प्रकाशित होने से पहले ही ब्रिटिश शासन द्वारा जप्त कर ली जाती थी। जब सावरकर Cellular Jail में गए थे तब उन्होंने अपनी कविताएं, कोयले से जेल की दीवारों पर लिखी जो आज भी वहां मौजूद है।

1923 में सावरकर ने “हिंदुत्व” नाम से एक ग्रंथ लिखा, इससे धर्म को लेकर उनके विचार लोगों तक पहुंचे। रत्नागिरी जेल में लिखी इस किताब से उन्होंने केवल हिंदू पहचान और हिंदुओं पर जोर दिया। उन्होंने इस किताब में माना कि हिंदू पौराणिक नहीं बल्कि यूनानी, इरानी और अरबों के साथ अस्तित्व में आए। वह हिंदुत्व को धर्म से अलग रहने की कोशिश भी करते थे और इसे राजनीतिक दर्शन की तरह दिखते थे। सावरकर हिंदू धर्म में प्रसिद्ध जाति भेद और छुआछूत के घोर विरोधी थे। मुंबई में सावरकर का बनवाया पतित पावन मंदिर इस बात का उदाहरण है। इसके अलावा सावरकर अपने लेख और भाषणों में ले धर्म की कई नीतियों का विरोध भी करते है।

विनायक दामोदर सावरकर ने 1909 में एक किताब “The Indian war of Independence” लिखी। इस किताब में उन्होंने पहली बार लिखा कि यह जन विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का पहला संग्राम था। हिंदी में या पुस्तक 1857 का “स्वतंत्रता समर” के नाम से छपी, हालांकि यह प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दी गई। लेकिन यह किताब आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी रही। इन 38 वर्षों के दौरान गोपनीय तरीके से इसके कई संस्करण छपे और कई भाषाओं में लोगों तक पहुंचे। क्रांतिकारियों ने ही इसे छिपाकर लंदन से भारत पहुंचाया। एक दौर में क्रांतिकारी इसे “धार्मिक ग्रंथ गीता” जैसा दर्जा देने लगे। यह पुस्तक सावरकर ने 25 साल की उम्र में लंदन केेे पुस्तकालयों मे अध्ययन और अनुसंधान करके लिखी। लेकिन यह छपने से पहले ही भारत और इंग्लैंड में प्रतिबंधित कर दी गई। इसके बाद सावरकर ने पूरी पृष्ठभूमि को समझा और तमाम दस्तावेजों को जुटाकर साबित किया कि यह कोई सिपाही बगावत नहीं बल्कि भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था, जिसमें सभी समुदायों की भागीदारी थी। भारत में इसे पहला ठोस व प्रमाणिक ग्रंथ माना जाता है। यह पुस्तक मूल रूप से मराठी भाषा में थी। सावरकर पहले ही भाप गए थे कि यह पुस्तक छपते ही अंग्रेज इसे ज़ब्त कर लेंगे। उन्होंने इसकी हस्तलिखित तीन प्रतियां छाप कर, एक प्रति अपने भाई “बाबाराव सावरकर” को भेज दी और दूसरी प्रति फ्रांस में “भीकाजी कामा” के पास और तीसरी प्रति अपने मित्र “डॉक्टर कुटिन्नहो” केे पास भेज दी। जिस का अंग्रेजी अनुवाद “लाला हरदयाल” और “भीकाजी कामा” के प्रयासों से छपा। इसके बाद यह क्रांतिकारियों के बीच व्यापक रूप से बाटा गया। यह ग्रंथ बेहद लोकप्रिय हुआ और इसके अनगिनत संस्करण गोपनीय तरीके से छापे गए।

सावरकर की यह किताब तमाम क्रांतिकारियों के लिए एक प्रेरणा का स्त्रोत बनी। इसी किताब की प्रेरणा से “गदर पार्टी” का जन्म हुआ। “शहीद भगत सिंह” भी इस किताब से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने राजा राम शास्त्री की मदद से से छपवाया। पुरुषोत्तम दास टंडन से लेकर “रासबिहारी बोस” तक को इस पुस्तक ने बहुत प्रभावित किया। “नेताजी सुभाष चंद्र बोस” के प्रयास से इस का तमिल संस्करण भी छपा। विदेशों में इसके कई गुप्त संस्करण छापे गए। इस पुस्तक ने काफी हलचल पैदा की।

आजादी के पहले व बाद में अंग्रेज अफसरों व इतिहासकारों ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर अनेक किताबें लिखी, लेकिन सावरकर की किताब सबसे अलग है। इसमें वास्तविक तस्वीर पेश करने की कोशिश की गई है।

अंग्रेजों ने इंजन क्रांतिकारियों से सहानुभूति रखने वालों का दमन अत्यंत नृशंसता से किया। उनके अखबार पत्राचार और अन्य दस्तावेज बड़े पैमाने पर नष्ट कर दिए गए कर दिए।

हालांकि 1857 से 1947 तक आजादी के बीच, 90 वर्ष का फासला रहा, परंतु सावरकर के प्रयासों ने बाद के आंदोलनों को, एक नई ताकत और दिशा दी।

 

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