Faxian’s Biography in hindi – यह बात आज से लगभग 1600 साल पहले की है जब आवागमन के साधन विकसित नहीं थे। लोग बहुत कम दूरी की यात्रा कर पाते थे और जो यात्रा करते थे वह भी पैदल ही आते जाते थे। उस समय कुछ ऐसे घुमक्कड़ हुए, जो जंगलों, पहाड़ों, रेगिस्तान और नदियों इत्यादि की परवाह न करते हुए निकल पड़ते थे। एक ऐसे ही घुमक्कड़ थे “फाहियान“(Faxian)।
फाहियान(Faxian) का जन्म 337 ई में चीन के “वियांग” नामक स्थान में हुआ था। वह बचपन से बीमार रहते थे। उनके खराब स्वास्थ्य के कारण, उनके माता-पिता उनके लिए चिंतित रहते थे। एक बार उनके मां-बाप ने उन्हें बौद्ध -विहार भेज दिया। धीरे धीरे फाहियान बौद्ध धर्म के शांतिपूर्ण वातावरण में रम गए और उनका स्वास्थ्य भी ठीक हो गया। लेकिन कुछ दिनों बाद इनके पिता की मृत्यु हो गई तो फाहियान के चाचा उन्हें लेने आए, तो उन्होंने घर वापस जाने से इंकार कर दिया और अपने चाचा से कहा –“यह संसार नश्वर है व्यक्ति को मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए“। एक बच्चे के मुंह से ज्ञान व धर्म की बातें सुन उनके चाचा को बहुत आश्चर्य हुआ। वह खाली हाथ वापस लौट गए।
फाहियान(Faxian) जल्द ही एक बौद्ध भिक्षु बन गए और धार्मिक पुस्तकें पढ़ने लगे। बौद्ध धर्म के विषय में और अधिक जानने के लिए नए-नए ग्रंथों को पढ़ने में उनकी रुचि और भी बढ़ गई। उस समय चीन में धर्मग्रंथों की बहुत कमी थी और जो धर्म ग्रंथ थे वह भी कटी-फटी हालत में थे। फाहियान ने सुन रखा था कि भारत में बौद्ध ग्रंथों का खजाना है इसलिए उन्होंने सोचा कि भारत चलकर, भगवान बौद्ध के देश का दर्शन करना चाहिए और पुस्तकें भी लानी चाहिए। फाहियान चार अन्य साथियों के साथ विहार से निकल पड़े। “लुंग” नामक जिले में पहुंचने पर उनकी मुलाकात अन्य यात्रियों से हुई। पैदल चलते चलते एक जगह ऐसी आई, जहां रास्ता बेहद कठिन था। चारों ओर धूल उड़ रही थी। गर्मी के कारण बुरा हाल था। वह सभी पानी खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। चारों और रेगिस्तान फैला हुआ था। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और आखिरकार रेगिस्तान को पार कर वह “शनशान” आ पहुंचे। यहां 4000 भिक्षुक निवास करते थे।
इसके बाद उन्होंने “खोतान” व “काशगर” की यात्रा की। “खोतान” के प्रसिद्ध “गोमती विहार” में उन्होंने निवास किया। यहां “महायान संप्रदाय” के 10 लाख भिक्षुक निवास करते थे। “उद्यान” भारत की उतरी पश्चिम सीमा से कुछ ही दूरी पर है। कहा जाता है भगवान बुद्ध ने यहां अपने कपड़े सुखाए थे।
उस समय गांधार में राजा “विभर्दन” का राज्य था। यह राजा सम्राट अशोक के वंश के थे। गांधार में, फाहियान(Faxian) ने कुछ पुस्तकें जमा की। गांधार से होते हुए वह “पुरुष पुर” पहुंचे। जिसे आज “पेशावर” के नाम से जाना जाता है जो आज पाकिस्तान में है। पेशावर में फाहियान ने कनिष्का द्वारा बनाए गए “चैत” के दर्शन किए। यह संपूर्ण क्षेत्र स्तूपो, विहारो तथा स्मारकों से भरा हुआ था। यहां से चलकर वह “नगर हार” पहुंचे। नगर हार की राजधानी में बौद्ध का “दंत पैगाड़ों” था।
वह आगे बढ़ते रहे। कड़ाके की सर्दी में फाहियान व अन्य साथियों के हाथ पैर नीले पड़ने लगे। भयंकर सर्दी में उनका एक साथी बीमार पड़ गया और उसके बचने की कोई आशा नहीं बची। उनके साथी ने कहा तुम लोग यहां ना रुको, तुम भी बीमार पड़ जाओगे, यात्रा भी पूरी नहीं कर पाओगे, मेरी चिंता ना करो। इतना कहते ही उसकी मृत्यु हो गई।
वह आगे बढ़ते गए और उन्हें कुछ ही दूरी पर सिंधु नदी दिखाई दी। उसकी सुंदरता को फाहियान(Faxian) देखते ही रह गया सिंधु पार करने के बाद इन्होंने पंजाब में प्रवेश किया। पंजाब के बाद मध्य देश की सीमा प्रारंभ होती थी। यह मध्य देश ब्राह्मणों का देश था। जहां लोग समृद्ध और खुश थे। लोगों को अपने मकानों का पंजीकरण नहीं कराना पड़ता था और ना ही न्यायालय में दंडाधिकारीयों के सम्मुख उपस्थित होना पड़ता था। वे जहां चाहे जा और रह सकते थे। लोग सरकारी भूमि पर खेती करते थे, खेती से जो पैदावार होती थी उस फसल का एक हिस्सा राजा को देना होता था। राजा मृत्युदंड या शारीरिक यातना ओं का भय दिखाए बिना शासन करते थे। लेकिन बार-बार राजद्रोह का अपराध करने वाले व्यक्तियों का केवल दाया हाथ काट दिया जाता था। वहां शांति व्यवस्था का साम्राज्य था। संपूर्ण देश में लोग ना तो जीवित प्राणी की हत्या करते थे और ना ही मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन आदि का सेवन करते थे। केवल चांडाल इसके अपवाद थे। चांडाल जब सड़क पर चलता था तो डंडा पटकता हुआ चलता था जिससे और लोग उससे दूर हो जाए अछूतों को धर्म ग्रंथों को पढ़ने की मनाई थी।
फाह्यान तक्षशिला भी गए। जहां उस समय का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था। कथा है– कि तक्षशिला में एक बार भगवान बौद्ध पधारे थे। जंगल में एक भूखी सिंहनी बच्चों को मारकर खाने जा रही थी। भगवान बुद्ध ने अपना मांस काटकर उसे दे दिया और उस बच्चे की जान बचा ली। फाह्यान ने जब यह कथा सुनी तो उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। फाह्यान यात्रा करते हुए पाटलिपुत्र पहुंचा, जिसे अब “पटना” कहते है। वहां उन्होंने संस्कृत भाषा सीखी। संस्कृत सीख कर भगवान बुद्ध के उपदेशों की नकल करनी शुरू की।
पाटलिपुत्र में फाह्यान ने “रथ उत्सव” देखें। इन उत्सव पर “सजे हुए रथ” निकाले जाते थे। रथों को आदमी खींचते थे। वहां बहुत भीड़ होती है। फाह्यान ने अपनी पुस्तक में रथयात्रा की बहुत प्रशंसा की। पाटलिपुत्र में फाह्यान ने सम्राट अशोक का राज महल देखा था। वह उसकी भव्यता से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने लिखा कि यह नगर देवताओं ने बनाया है। फाह्यान ने “श्रावस्ती” व “संग किस्सा” में भी अनेक स्मारक व भिक्षुक देखें। श्रावस्ती स्थित “द्वितवन” की वह प्रशंसा करते है। यहां कई पुण्यशाला है जहां यात्रियों को मुफ्त भोजन दिया जाता है। यहां लोग सूअर और मुर्गी नहीं बल्कि गाय, भैंस और घोड़े पालते हैं। यहां जानवरों को बेचा नहीं जाता बल्कि उनकी सेवा की जाती है। धनपतियों ने यहां चिकित्सालय बनवाए हैं जहां रोगियों को भोजन व दवाई मुफ्त दी जाती है।
फाह्यान बौद्ध धर्म के अन्य तीर्थों को देखने आगे बढ़े और वह “राम ग्राम “पहुंचे, जहां भगवान बुद्ध ने अपना घोड़ा छोड़ा था। राम ग्राम से वह “कुशीनगर” पहुंचे। जहां भगवान बुद्ध ने अपने प्राण छोड़े थे। बौद्ध काल में वैशाली एक महान राज्य था। वह राज्य बौद्धों का गढ़ था। भगवान बौद्ध के मुख्य शिष्य की मृत्यु, वैशाली से 8 कोस दूर एक स्थान पर हुई थी। फाह्यान ने उस जगह के भी दर्शन किए जहां बुद्ध भगवान, जल त्यागने के कारण निर्बल होकर गिर पड़े थे और सुजाता ने उन्हें खीर खिलाई थी। जिस चट्टान पर बैठकर भगवान बुद्ध ने खीर खाई थी, फाह्यान ने उस स्थान पर फूल चढ़ाए।
यहां वह “बोधि वृक्ष” भी था, जहां पर भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। फाह्यान उस जगह काफी देर रुका और उसके आंसू बहते रहे। उस जगह की पूजा करके वह राजगृह की ओर चल पड़ा।
जब फाहियान राजगृह पहुंचा, तो एक जगह उन्हें “42 रेखाएं” खींची दिखी। लोगों से पूछने पर उन्हें पता चला कि राजा शुक्र ने बुद्ध से 42 प्रशन पूछे थे और कहा था कि अगर सब प्रश्न के उत्तर मिल जाएंगे तो वह उनकी शरण में आ जाएंगे। हर प्रशन के बाद राजा एक रेखा खींचते जाते थे। सारे प्रश्नों के उत्तर मिल जाने के बाद वह भगवान बुद्ध की शरण में चले गए फाह्यान ने राजगृह से आगे चलकर वह अग्निकुंड देखा जिसमें भगवान बुद्ध को जलाकर मार डालने का प्रयास किया गया था। देवदत्त ने आजाद शत्रु के साथ मिलकर बुद्ध भगवान को मारने के कई प्रयत्न किए थे। एक बार तो उन पर पागल हाथी छोड़ दिया था। परंतु इन सब से बुद्ध भगवान का बाल भी बांका नहीं हुआ था।भारत में फाह्यान ने उन सभी जगहों की यात्रा की जहां उसे बौद्ध धर्म से संबंधित कोई वस्तु मिल सकती थी। उसने बहुत सी पुस्तकें इकट्ठे कर ली थी।
फाह्यान को अब “सिंहल द्वीप” देखने की इच्छा हुई जिसे आज हम “श्रीलंका” के नाम से जानते हैं ।फाह्यान लंका के बारे में लिखता है कि लोग श्रीलंका में समुद्र से मोती निकालते थे और 10 मोती निकालने पर 3 मोती राजा को “कर के रूप” में देने पड़ते थे। चौराहों पर हर दिन धार्मिक उपदेश होते थे। गरीबों को भोजन व वस्त्र दान दिए जाते थे। लंका में भगवान बौद्ध का “एक दांत” रखा हुआ है।
उस समय लंका में भी पाटलिपुत्र की तरह रथ यात्राएं निकलती थी। फाह्यान के साथी पहले ही चीन लौट चुके थे। उन्हें भी घर की याद सता रही थी। हजारों मील की यात्रा करके वह चीन से पैदल आए थे पर पैदल वापस जाना बहुत कठिन था क्योंकि बहुत सारी पुस्तकें फाहियान के पास थी।
श्रीलंका से एक जहाज चीन जा रहा था। फाहियान ने उन्हें, उसे साथ ले चलने के लिए राजी कर लिया। जहाज पर अपनी पुस्तकों का कीमती भंडार लादकर वह अपने देश की ओर चल पड़े। कुछ समय बाद जहाज डगमगाने लगा, जहाज की तली में छेद हो गया और जहाज में पानी भरने लगा। जहाज में पानी भरता देखकर व्यापारियों ने नाव खोली। फाहियान के पास किताबों का पहाड़ था। यात्रियों ने कहा -इसे फेंक दो। फाहियान ने अपना सारा सामान फेंक दिया परंतु किताबें नहीं फेंकी। धीरे-धीरे तूफान शांत हुआ। 13 वे दिन नाव किनारे पर लगी। किनारे पर पहुंचने पर, नाव में जहां से पानी रिस रहा था, उसकी मरम्मत की गई।
उस समय समुद्र में बहुत से समुद्री डाकू घूमते रहते थे। जिन से मिलना मौत को दावत देने के बराबर था। चारों तरफ समुंदर ही समंदर दिखाई दे रहा था। पूर्व व पश्चिम का कुछ पता ना था। केवल सूरज, चांद और तारों को देख कर ही दिशा का अनुमान लगाया जाता था। अगर मौसम खराब हो जाए, तो हवा नाव को बहा ले जाती थी। बीच समंदर में वह लगभग 90 दिन भटकते रहे और आखिर में “जावा द्वीप” पर पहुंचे। वहां उस समय ब्राह्मण धर्म का वर्चस्व था। फाह्यान को वहां 5 महीने इंतजार करना पड़ा।
फिर एक दिन फाहियान को पता चला कि एक धनी व्यापारी 200 लोगों व 50 दिन के राशन के साथ चीन की तरफ निकल रहा है। फाहियान उनके साथ हो लिए रास्ते में फिर उनका सामना एक प्रलय कारी तूफान से हुआ। ब्राह्मणों ने आपस में बात की और बोले- कि हो ना हो यह आपदा इस चीनी भिक्षुक के कारण ही आई है। वे लोग फाहियान को समुद्र के किनारे फेंक देने हेतु तैयार हो उठे। तभी एक दूसरे दयालु और वीर यात्री ने कहा कि अगर तुम इस भिक्षुक को जहाज से उतारते हो, तो तुम्हें मुझे भी जहाज से उतारना होगा। अगर तुम ऐसा नहीं करते तो तुम्हें हर हाल में मुझे मार देना होगा, क्योंकि अगर मैं जिंदा पहुंचा तो मैं सीधा राजा के पास जाऊंगा। राजा बौद्ध के बहुत बड़े उपासक हैं। भिक्षुको का आदर करते हैं। ऐसा सुनकर व्यापारियों की फाहियान को जहाज से उतारने की हिम्मत नहीं हुई।अब तक उन्हें निकले 70 दिन से ऊपर बीत चुके थे अनाज और पानी दोनों समाप्त हो गए थे। उन्होंने समुद्री पानी का प्रयोग, भोजन पकाने में किया। पीने के पानी को जहां तक हो सका बचाया। आखिरकार 80 दिन बाद धरती दिखाई दी। नाव के सभी यात्री बहुत भूखे थे। वहां पर उन्हें कुछ खाने को मिला। परंतु उन्हें यह नहीं पता था कि वह कहां पर हैं।
तभी उन्हें दो शिकारी मिले तब उन्हें मालूम हुआ कि वह “चांग- कांग” नामक तट पर है। चांग- कांग का अधिकारी बड़े आदर से उन्हें राजधानी ले गया। लोगों को जब पता चला की फाहियान भारत यात्रा करके लौटे हैं, तो लोगों के उत्साह का ठिकाना ना रहा। उन्होंने फाहियान को घेरकर सवालों की झड़ी लगा दी। फाहियान ने उन्हें भारत व श्रीलंका के बारे में बहुत सारी बातें बताई। फिर वह वापस अपने बौद्ध विहार पहुंच गए जहां से उन्होंने यात्रा शुरू की थीबौद्ध विहार व जनता में उनकी बहुत जय जयकार हुई। पुस्तकों का अमूल्य खजाना पाकर वहां के लोग अत्यधिक प्रसन्न हुए। फाहियान का बौद्ध विहार, धर्म और दर्शन का केंद्र बन गया।
फाह्यान को भारत पहुंचने में 6 वर्ष लगे थे और 6 वर्ष तक उन्होंने भारत व श्रीलंका का भ्रमण किया था। 3 वर्ष उन्हें वापस चीन पहुंचने में लगे। जब वापस चीन पहुंचे तो वह लगभग 77 वर्ष के हो चुके थे। इस तरह 15 वर्ष वह सहासिक धार्मिक यात्री, ज्ञान की खोज व पुस्तकों के संग्रह के लिए भटकता रहा। आते जाते उन्होंने 30 देशों का पर्यटन किया।
ज्ञान की खोज व विद्या का संग्रह करने वालों में फाहियान का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। इन्होंने अपने काम को करते हुए कभी भी हिम्मत नहीं हारी। उनका जीवन घुमक्कड़ के लिए एक मिसाल है। जो लोग धीरज और लगन से काम लेते हैं, अनगिनत बाधाएं भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती। संसार में बहुत से यात्री हुए हैं, परंतु उन यात्रियों में फाहियान का नाम “स्वर्ण अक्षरों” में लिखा रहेगा।
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