Omkareshwar Jyotirlinga Temple in Hindi
ओकारेश्वर ज्योतिर्लिंग 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इसके साथ ही अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग भी है। इन दोनों शिवलिंगओं की गणना एक ही ज्योतिर्लिंग में की गई है। ओमकारेश्वर स्थान मालवा क्षेत्र में पड़ता है। स्कंद पुराण में भी ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा का बखान किया गया है।
महादेव का यह धाम जिस पहाड़ी की चोटी पर बना है उसे पुराणों में “ओम पर्वत” कहा गया है क्योंकि इस टापू की संरचना ओम के आकार की है।
देव के इस धाम में रोजाना अच्छी भीड़ होती है। माना जाता है कि चारों धाम की यात्रा, इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बिना अधूरी है।
पुराणों के अनुसार राजा मांधाता ने ओमकारेश्वर मंदिर की स्थापना की थी। जिन्हें भगवान राम का पूर्वज भी माना जाता है।यह मंदिर जितना वेद कालीन है उतना ही चमत्कारी भी है।
महादेव के उस स्वयंभू रूप की एक झलक पाने को हर श्रद्धालु बेताब होता है। शिवलिंग के ऊपर तीन ज्योत जल रही है यह ज्योति ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतीक है और यही इस ज्योतिर्लिंग की खासियत भी है।
रात को 9:30 बजे मंदिर के दरवाजे बंद हो जाते हैं, चौसर बिछाई जाती है, मां पार्वती का शयन लगाया जाता है और अगली सुबह जब मंदिर के पट खोले जाते हैं तो चौसर बिखरी हुई मिलती है।
ऐसा माना जाता है कि रात्रि में भगवान शंकर और पार्वती यहां शयन करते हैं और चौसर खेलते हैं।
ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग अलौकिक है। भगवान शंकर की कृपा से यह स्थान देवस्थान के समान है।
जो मनुष्य इस तीर्थ में पहुंचकर अन्न दान, तप, पूजाा इत्यादि करता है या उसे इस स्थान पर मृत्यु प्राप्त होती है उसे भगवान शिव के लोक में स्थान प्राप्त होता है।
महान पुण्यशाली अमरेश्वर अर्थात ओमकेश्वर तीर्थ हमेशा देवताओं तथा ऋषि मुनियों के समुदायों से भरा रहता है।
इसलिए यह एक महान पवित्र तीर्थ है। ओमकारेश्वर तीर्थ नर्मदा नदी के किनारे विद्यमान है। नदी के दो धाराओं के बटने से एक टापू का निर्माण हो गया।
उस मध्य भाग के टापू का नाम “मांधाता पर्वत” है। इसे “शिवपुरी” भी कहते हैं। नर्मदा से विभक्त धारा उत्तर की तरफ बहती है तो दूसरी धारा दक्षिण की ओर जाती है।
दक्षिण की ओर बहने वाली धारा ही “प्रधान धारा” मानी जाती है जिसे नाव के द्वारा पार किया जाता है। इसी मांधाता पर्वत पर, ओम्कारेश्वर महादेव विराजमान है।
इतिहास मे प्रसिद्ध भगवान के महान भक्त, अमरीश और मुकुंद के पिता सूर्यवंशी राजा मांधाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को पसंद किया था।
वह एक तपस्वी और विशाल महायज्ञ के कर्ता थे। उस महान पुरुष मांधाता के नाम पर इस पवित्र पर्वत का नाम “मांधाता पर्वत” हो गया।
यहां के ज्यादातर मंदिरों का निर्माण पेशवा के राजाओं के द्वारा ही कराया गया था। ऐसा बताया जाता है कि भगवान ओमकारेश्वर का मंदिर भी उन्हीं पेशवा द्वारा ही बनवाया गया है।
इस मंदिर में दो कमरों के बीच में से होकर जाना पड़ता है क्योंकि भीतर अंधेरा रहता है इसलिए यहां हमेशा दीपक जलाया जाता है।
इस ओमकार तीर्थ के ज्योतिर्लिंग को दिन को, शिव महापुराण में “परमेश्वर लिंग” कहा गया है।
यह परमेश्वर लिंग इस देश में कैसे प्रकट हुआ, इस संबंध में शिवपुराण की कथा इस प्रकार है—-
भगवान शिव के अनेक नाम है। एक बार नारद ऋषि परम श्रद्धा और भक्ति के साथ “गोकन” नामक ऋषि के पास गए और बहुत लगन के साथ उनकी सेवा करने लगे।
कुछ समय सेवा में बिताने के बाद नारद मुनि श्रेष्ठ वहां से गिरिराज विंध्य पर पहुंच गए।
विंध्य ने बड़े आदर सम्मान के साथ उनकी पूजा-अर्चना की और कहा कि “मैं सर्वगुण संपन्न हूं और मेरे पास सब प्रकार की संपदा है, किसी वस्तु की कमी नहीं है”।
इस प्रकार के भाव को मन में लिए, विंध्याचल नारद ऋषि जी के समक्ष खड़ा हुआ। अहंकार नाशक नारद जी विंध्याचल द्वारा यह सब सुनकर लंबी सांस लेते हुए चुपचाप खड़े रहे।
विंध्य पर्वत ने उनसे पूछा कि आपको मेरे पास कौन सी कमी दिखाई दी, आपने किस कमी को देखकर लंबी सांस खींची।
नारायण जी ने विंध्याचल को बताया कि तुम्हारे पास सब कुछ है लेकिन मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊंचा है और उस पर्वत के शिखर के भाग देवताओं तक पहुंचते हैं।
मुझे लगता है कि तुम्हारे शिखर के भाग कभी भी वहां तक नहीं पहुंच पाएंगे। इस प्रकार नारद जी के चले जाने पर विंध्याचल बहुत पछताया और दुखी होकर मन ही मन शोक करने लगा।
उसने निश्चय किया कि अब वह शिव भगवान की आराधना और तपस्या करेगा।
इस तरह विचार करने के बाद वह भगवान शंकर जी की सेवा में लग गया। जहां साक्षात ओंकार विद्यमान है उस स्थान पर पहुंच कर उसने प्रसंता और प्रेम पूर्वक शिवजी की पार्थिव मूर्ति बनाई।
फिर 6 महीने तक उनकी मूर्ति में तन्मय रहा और शंभू की अराधना -पूजा करने के बाद निरंतर उनके ध्यान में तल्लीन हो गया। और अपने स्थान से इधर-उधर नहीं हुआ।
उसकी कठोर तपस्या को देख कर भगवान शिव प्रसन्न हो गए और उन्होंने विंध्याचल को अपना दिव्य स्वरुप प्रकट कर दिया।
जिसका दर्शन बड़े-बड़े योगियों के लिए भी अत्यंत दुर्लभ होता है। सदा शिव भगवान प्रसन्नता पूर्वक विंध्याचल पर्वत से बोले– विंध्य मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं, मैं अपने अपने भक्तों को उनका अभीष्ट वर प्रदान करता हूं।
इसलिए तुम वर मांगो । विंध्य ने कहा –देवेश्वर महेश यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो हे भक्तवत्सल हमारे कार्य की सिद्धि करने वाली अभीष्ट बुद्धि हमें प्रदान करें।
विंध्य पर्वत की याचना को पूरा करते हुए भगवान शिव ने कहा— पर्वतराज में तुम्हें वह उत्तम वर प्रदान करता हूं तुम जिस प्रकार का काम करना चाहो कर सकते हो।
मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। जब भगवान शिव ने विंदे को उत्तम वर दे दिया तो उसी समय देवगण और शुद्ध बुद्धि व निर्मल चित वाले कुछ ऋषि गण भी वहां आ गए।
उन्होंने भी भगवान शंकर की विधिवत पूजा की और स्तुति करने के बाद उनसे कहा— प्रभु आप हमेशा के लिए यहां स्थित होकर निवास करें। देवताओं की बात से भगवान शिव को बहुत प्रसन्नता हुई।
लोकों को सुख पहुंचाने वाले भगवान शिव ने ऋषि यों और देवताओं की बात प्रसंता पूर्वक स्वीकार कर ली। वहां पर स्थित एक ओंकार लिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया।
प्रणव के अंतर्गत जो शिव विद्यमान थे उन्हें “ओंकार” नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार पार्थिव मूर्ति में जो ज्योति प्रतिष्ठित हुई, वह “परमेश्वर लिंग” के नाम से विख्यात हुई।
परमेश्वर लिंग को ही अमलेश्वर लिंग भी कहा जाता है। इस प्रकार भक्तजनों को अभीष्ट वर प्रदान करने वाले “ओमकारेश्वर” और “परमेश्वर” नाम से शिव के यह ज्योतिर्लिंग जगत में प्रसिद्ध हुए ।
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