Dwarkadhish temple history in hindi – भारत के पश्चिम राज्य गुजरात में, अरब सागर के किनारे स्थित, द्वारिका एक तीर्थ स्थान है ।
यह एक प्राचीन नगरी है। जो नदी व सागर के संगम पर बसी है ।इस शहर में एक भव्य मंदिर है जहां भगवान विष्णु की पूजा होती है ।यहां आस्था का ध्वज लहराता है क्योंकि यह एक देवस्थान है। द्वारका में भगवान श्री कृष्ण, द्वारिकाधीश के रूप में पूरे जाते हैं ।
भारत विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं की भूमि है इसके पश्चिम तट पर 65000 किलोमीटर तक फैला गुजरात का क्षेत्र है।
जहां एक तरफ मरूभूमि और दूसरी ओर हरियाली है। इसके तीन तरफ अरब सागर है ।यह वह क्षेत्र है जहां एक ऐतिहासिक शहर द्वारिका बसता है ।गोमती नदी अरब सागर पर बसा द्वारिका विश्वास और इतिहास को जोड़ता है।
इस शहर ने, अलग-अलग काल में अलग-अलग शासकों को देखा है ।गुप्त वंश से लेकर राजपूत ,मराठा ,मुगलों और अंग्रेजों तक।
द्वारिका का सबसे पहला ऐतिहासिक उल्लेख छठी सदी में गुजरात के भावनगर जिले में कॉपर प्लेट पर लिखा मिलता है ।पर श्रद्धालुओं के लिए यह हमेशा देवभूमि ही रहा है
।भारत के चार धामों में से और सात सबसे बड़े पवित्र धाम सप्त पुरी में से, एक द्वारिका है ।हिंदू ग्रंथों के अनुसार इन सब तथ्यों का भगवान से कोई ना कोई नाता रहा है। और यहां आज भी उनका तेज, महसूस होता है।
द्वारका को मोक्ष का द्वार माना जाता है। गोमती नदी के आने के लिए दो मुख्य द्वार हैं ।
- एक मुख्य द्वार जो जन्म मरण से मुक्ति पाने का रास्ता बताता है और
- दूसरा है स्वर्गद्वार ।
यहां आने के लिए 56 सीढ़ियां हैं जो कि 52 प्रशासनिक विभाग व कृष्ण परिवार के चार सदस्यों को समर्पित है।
द्वारिका को श्री कृष्ण भगवान् ने बसाया है ।भगवान कृष्ण का जन्म तो मथुरा के कारागार में हुआ था। लेकिन उनके पिता उन्हें गोकुल ले गए थे जिससे भगवान श्रीकृष्ण सुरक्षित रह सके।
वहां कृष्ण जी गाय चराते ,माखन चुराते ,रास रचाते बड़े हुए और फिर श्री कृष्ण जी ने अपने मामा का वध किया।
कंस के ससुर जरासंध के बार-बार मथुरा पर आक्रमण करने के कारण वह सारी प्रजा को लेकर सौराष्ट्र आ गए थे।
महाभारत में अर्जुन के सारथी और मार्गदर्शन बनकर श्री कृष्ण ने सारी दुनिया को गीता का ज्ञान दिया ।श्री कृष्ण की कहानी पूर्व भारत को, पश्चिम भारत से जोड़ती है।
कहते हैं द्वारिका बसाने के लिए श्री कृष्ण ने समुद्र देवता से जमीन ली और विश्वकर्मा द्वारा रातों-रात द्वारका का निर्माण करवाया ।विशाल दीवारों से बनी, यह सोने की नगरी वास्तु कला की बेहतरीन मिसाल है।
गांधारी के श्राप के कारण विशाल लहरों ने द्वारका को समुद्र में डुबो दिया ।
ऐसा कहा जाता है श्री कृष्ण द्वारका नगरी के विनाश से पहले ही द्वारिका छोड़ गए थे ।इसके कुछ समय बाद श्री कृष्ण जी मृत्यु लोक छोड़कर बैकुंठ धाम चले गए।
द्वारिका ओखामंडल का हिस्सा है जहां समुद्र के तट का कटना ,भूकंप और समुद्री हवाएं बड़ी आम बात है। इसी वजह से द्वारका की इमारते और दीवारें कमजोर पड़ जाती हैं पर यहां विश्वास कभी कमजोर नहीं पड़ता ।द्वारिका वासियों के लिए आज भी उनके श्री कृष्ण भगवान यही विराजमान है
वह इसी रूप में आज भी यहां बसते हैं ।कृष्ण के चाहने वालों में हर उम्र के लोग मिलते हैं। बड़े बूढ़े ,जवान ,युवा सभी भगवान श्री कृष्ण की पूजा करते हैं।
द्वारिकाधीश का यह मंदिर बाकी सभी इमारतों से ऊंचा है। यूं तो इस मंदिर की स्थापना का कोई ऐतिहासिक तिथि नहीं है ।पर प्रमाणों के अनुसार इस मंदिर ने कई आक्रमण व पुनर्निर्माण देखे हैं।
आठवीं सदी में संत शंकराचार्य ने इसका पुनर्निर्माण करवाया इसके बाद इसकी देखरेख राजपूतों को सौंप दी गई 15 शताब्दी को महमूद बेगड़ा ने इसे तोड़ दिया फिर इसकी मरम्मत करवाई गई और बाद में इसे द्वारकाधीश एडमिनिस्ट्रेशन को सौंप दिया गया ।कथाओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण ,श्री कृष्ण के पढ़ पोते ने करवाया सेंड स्टोनऔर ग्रेनाइट से बना यह मंदिर , वास्तु कला शैली का बेजोड़ उदाहरण है।
इसमें पांच मंजिलें हैं 7 स्तंभ है। इसका शिखर करीब 38 मीटर ऊंचा है ।मंदिर की दीवारों पर देवता व पशु पक्षियों की कलाकृतियां शोभायमान है ।इस भव्य मंदिर में द्वारकाधीश की प्रतिमा को द्वारका वासी किसी राजा की तरह पूजते हैं ।द्वारिकाधीश मंदिर की अपनी दिनचर्या है ।सब कुछ समय अनुसार है मंदिर की प्रतिमा को देवता स्वरूप माना जाता है।
प्रतिदिन द्वारकाधीश को 11 बार भोग लगाया जाता है ।
चार बार आरती होती है ।सुबह मंगला आरती ,दोपहर श्रृंगार आरती द्वारा द्वारकाधीश को सजाया जाता है ।शाम को विश्राम के बाद संध्या आरती होती है और रात्रि को शयन आरती के द्वारा उन्हें सुलाया जाता है ।
सुबह-सुबह मंदिर की गलियों में तुलसी की माला बेचने की भीड़ लगी रहती है। तुलसी जी ,श्री कृष्ण की पत्नी होने के साथ-साथ प्रेम का प्रतीक भी मानी जाती है। सुबह-सुबह भगवान का श्रृंगार राजा की तरह होता है ।
पट खुलते हैं और द्वारकाधीश का श्रृंगार विभिन्न रेशम के वस्त्र, रत्न और फूलों से किया जाता है ।द्वारकाधीश में द्वारका का सिंगार का बहुत महत्व है ।यहां श्री कृष्ण की मूर्ति चतुर्भुज रूप में स्थापित है। चतुर्भुज रूप कृष्ण का सबसे भव्य रूप माना जाता है ।उनके चार हाथों में पदम , गदा ,शंख और चक्र है ।
यहां भगवान दर्शन की महिमा बहुत ज्यादा है यात्री भगवान द्वारकाधीश के दर्शन कर अभिभूत हो जाते हैं ।
द्वारिका वासी अपने द्वारकाधीश से जुड़े हुए हैं। जब द्वारकाधीश जागते हैं ,तो द्वारिका जाग जाती है ।और जब वह सोते हैं तो वह सभी सो जाते हैं ।
द्वारकाधीश के मंदिर के शिखर पर बावन गज का, ध्वज लहराता है ।कहते हैं किसी भी मंदिर के शिखर पर लहराता ध्वज, उस मंदिर की शक्ति व यश की निशानी होती है। पर लोग मानते हैं कि द्वारकाधीश की ध्वजा मनोकामनाएं पूरी करती हैं ध्वज चढ़ाने के लिए भारत के अलग-अलग हिस्सों से ,कृष्ण भक्त यहां आते हैं । इस अवसर के लिए भक्तों को 2 से 5 वर्षों का इंतजार करना पड़ता है ।
लोग भगवान से मन्नतें मांगते हैं और मन्नत पूरी होने पर ध्वजा चढ़ाते हैं ।
यह ध्वजा राधा का रूप मानी जाती है ।यह एक ऐसी भूमि है जहां नदी और समुद्र का मिलन होता है। जहां आस्था और तथ्य का मिलाप होता है ।यह ऐसी नगरी है जो श्रद्धालुओं को अपनी ओर कृष्ण प्रेम में खींचती है और उसी में डुबो देती है।
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